This page has been fully proofread twice.

दर्शाते हैं। जैसे तत् पद के दो अर्थ हैं एक तो ( वाच्य ) बोलने
को दूसरा लक्ष्य को। ऐसे ही त्वम्पद के भी दो अर्थ होते हैं, जैसे
कि--एक शिकारी शिकार करने गया तो बोलने को तो हरिन वाच्य
अर्थ है और उसका माँमांसादि लक्ष्य के अर्थ है । तथा घट पद का
वाच्य अर्थ तो “काम्बुप्ग्रीवादि विशिष्टत्व” यानी घड़ा गोलाकार और
प्ग्रीवादि युक्त है, परन्तु इसका लक्ष्य यानी मूल कारण मिट्टी है, उसी
तरह "तत्त्वमसि ” इस महावाक्य के तत् और त्वम् पद का वाच्य अर्थ,
तत् = माया, त्वम् = अविद्या का सम्बन्ध वाला है, परन्तु लक्ष्मायार्थ माया
तथा अविद्या से रहित शुद्ध चैतन्य ब्रह्म है, और स्थूल सूक्ष्म दोनों
शरीरों का अभिमानी त्वम् पद का वाच्यार्थ है, और उपाधि शून्य और
समाधिदन्याशा को प्राप्त शुद्ध चैतन्य त्वम्पद का लक्ष्यार्थ है क्योंकि यह
महावाक्य बन्धन से छुड़ने के हेतु हैं, न कि इस संसार में फँसने के
लिये हैहैं। इस लिये इस भेद बुद्धि को त्यागने के लिये माया का
परित्याग करो तभी ईश्वर का दर्शन हो सकेगा ।
 
आपकी शङ्का इस तरह निवृत्ति करके फिर शुद्ध ज्ञान के निमित्त
"तत्त्वमसि " महावाक्य का अर्थ कहते हैं तथा जीव और ईश्वर को
एक दृष्टि से व्यवहार करो इसका अनुमोदन करते हैं।
 
एवं सर्वज्ञत्वादिविशिष्ट ईश्वरस्तत्पदवाच्यार्थः
उपाधिशून्यं शुद्धचैतन्यं तत्पदलक्ष्यार्थः । एवञ्च
जीवेश्वरयोश्चैतन्यरूपेणाऽभेदे बाधकाभावः ।
 
अर्थ:- इस प्रकार जो ऊपर कहा गया है उसका पुनः