This page has been fully proofread once and needs a second look.

सकेगा, क्योंकि अन्धकार और सूर्यं एक कदापि नहीं होता,
अन्धकार का धर्म है अन्धेरा करना, और सूर्य का धर्म है कि
अन्धकार को नष्ट कर अपना प्रकाश करना, इसी प्रकार विरुद्ध
धर्म वाले जीव और ईश्वर किस प्रकार एक हो सकते हैं, जब
कि जीव अल्पज्ञ तथा अहंकार है और ईश्वर अहंकार से रहित
और सर्वज्ञ है तो कहो कैसे एक होगा १
 
समाधान--इति चेन्न, स्थूलसूक्ष्मशरीराभिमानी
त्वम्पदवाच्यार्थमुपाधिविनिर्मुक्तं समाधिदशासम्पन्नं
शुद्धं चैतन्यं त्वम्पदलक्ष्यार्थः ।
 
अर्थ:--यह शङ्का ठीक है परन्तु जैसा आप समझते हैं
वैसा अर्थ नहीं है, यथार्थ में जीव और ईश्वर के बीच जो मेद
मालूम होता है वह उपाधि करके मालूम होता है, परन्तु यह
भेद है नहीं, और जो 'तत्वमसि' महावाक्य को कहकर भिन्नता
प्रगट की उसकी निवृत्ति हेतु 'तत्वमसि' इस नचन से ही जीव
और ईश्वर की अभिन्नता सिद्ध कर कहते हैं।
 
उदाहरण--
 
जैसे "तत्त्वमसि" इस महावाक्य के तीन पद हैं तथा पहला तत्,
दूसरा त्वम्, तीसरा असि, इन तीनों के अर्थ भी सामान्य रीति से
तीन होने चाहिये तथा तत्-वह ईश्वर, त्वम्-तू जीव ही, असि है,
अर्थात् हे जीव ! वह ईश्वर तूं ही है।
 
अब दूसरा अर्थ जो कि अपने में विशेषत रखता है उसे भी