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संसार उससे छुटकारा नहीं पा सकता, इस लिये अगर संसार
से मुक्त होने की इच्छा है तो मित्र जीव और ईश्वर में जो <error>मेद</error><fix>भेद</fix>
बुद्धि बनी हुई है उसे जल्द ही त्याग करके निज रूप को देखो
कि हमारे से बाहर ईश्वर कहाँ है ?
 
जब इतना सुना कि हम हीं ब्रह्म हैं फिर भी संसार का दुःख
भोगते हैं सो क्यों ? अगर देह में ब्रह्म का निवास मानते हैं तब यह
शङ्का होती है कि देह अहङ्कार युक्त है और ईश्वर अहङ्कार से रहित
है तथा जीव पिण्ड में निवास करता है और ईश्वर सर्वत्र विराजमान
है तब एक कैसे ? इसलिये यह भ्रम दूर हो इसी गुरज से पुनः शङ्का
करते हैं--
 
शङ्का--ननु साहङ्कारस्य किञ्चिज्ज्ञस्य जीवस्य
निरहङ्कारस्य सर्वज्ञस्येश्वरस्य तत्त्वमसि
महावाक्यात् कथमभेदबुद्धिः स्यादुभयोर्वि-
रुद्धधर्माकान्तत्वात् ।
 
अर्थ:--यह देह तो अहंकार के सहित तथा अरपज्ञ है
क्योंकि यह जीव विश्व की सम्पूर्ण क्रियाओं को नहीं जानता
इस लिये अल्पज्ञ है तथा मैंने किया है कि मेरा है इत्यादि अहंकार
युक्त है, और ईश्वर अहंकार से रहित तथा सर्व-व्यापक होता
हुआ सम्पूर्ण कार्यों को जानता है, तब एक कैसे होंगे ? यही
नहीं, शास्त्र के जो बचन तत्त्वमसि इत्यादि वाक्यों के द्वारा
अभेद बुद्धि अर्थात् दोनों को एक माने ऐसा तो कदापि न हो