2022-08-01 10:41:28 by Andhrabharati
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रूपार्थकुलविद्यादिहीनं नोपहसेन्नरम् ।
हसन्तमशपन्नन्दी रावणं वानराननः ॥ ८७ ॥
रूप, द्रव्य, कुल और विद्या आदि से हीन पुरुष की हँसी कभी
नहीं करनी चाहिये । वानररूपधारी नन्दी ने अपना उपहास करने
वाले रावण को शाप दे दिया था । ८७ ॥
बन्धूनां वारयेद् वैरं नैकपक्षाश्रयो भवेत् ।
कुरुपाण्डवसङ्ग्रामे युयुधे न हलायुधः ॥ ८८ ॥
भाई-भाई के बीच उत्पन्न वैरभाव को दूर करने का उपाय करना
चाहिए । किसी एक का पक्ष ग्रहण कर उनके वैर को बढ़ाना न
चाहिए । कौरवों और पाण्डवों के युद्ध में बलरामजी निष्पक्ष ही
बने रहे ॥ ८८ ॥
परोपकारं संसारसारं कुर्वीत सत्त्ववान् ।
निदधे भगवान् बुद्धः सर्वसत्त्वोद्धृतौ धियम् ॥ ८९ ॥
परोपकार ही संसार का सार है । ऐसा समझकर सभी जीवों के
साथ उपकार करना चाहिए। भगवान् बुद्ध ने सभी जीवों का उद्धार
करने की ही बुद्धि रखी ॥ ८९ ॥
विभृयाद् बन्धुमधनं मित्रं त्रायेत दुर्गतम् ।
बन्धुमित्रोपजीव्योऽभूदर्थिकल्पद्रुमो बलिः ॥ ९० ॥
गरीब भाई का भरण-पोषण करना चाहिए । मित्र की विपत्ति से
रक्षा करनी चाहिए । बन्धुओं और मित्रों के साथ ऐसा ही व्यवहार
करने से बलि याचकों का कल्पवृक्ष बना हुआ था ॥ ९० ॥
न कुर्यादभिचारोग्रवध्यादिकुहकाः क्रियाः ।
लक्ष्मणेनेन्द्रजित् कृत्याद्यभिचारमयो हतः ॥ ९१ ॥
हसन्तमशपन्नन्दी रावणं वानराननः ॥ ८७ ॥
रूप, द्रव्य, कुल और विद्या आदि से हीन पुरुष की हँसी कभी
नहीं करनी चाहिये । वानररूपधारी नन्दी ने अपना उपहास करने
वाले रावण को शाप दे दिया था । ८७ ॥
बन्धूनां वारयेद् वैरं नैकपक्षाश्रयो भवेत् ।
कुरुपाण्डवसङ्ग्रामे युयुधे न हलायुधः ॥ ८८ ॥
भाई-भाई के बीच उत्पन्न वैरभाव को दूर करने का उपाय करना
चाहिए । किसी एक का पक्ष ग्रहण कर उनके वैर को बढ़ाना न
चाहिए । कौरवों और पाण्डवों के युद्ध में बलरामजी निष्पक्ष ही
बने रहे ॥ ८८ ॥
परोपकारं संसारसारं कुर्वीत सत्त्ववान् ।
निदधे भगवान् बुद्धः सर्वसत्त्वोद्धृतौ धियम् ॥ ८९ ॥
परोपकार ही संसार का सार है । ऐसा समझकर सभी जीवों के
साथ उपकार करना चाहिए। भगवान् बुद्ध ने सभी जीवों का उद्धार
करने की ही बुद्धि रखी ॥ ८९ ॥
विभृयाद् बन्धुमधनं मित्रं त्रायेत दुर्गतम् ।
बन्धुमित्रोपजीव्योऽभूदर्थिकल्पद्रुमो बलिः ॥ ९० ॥
गरीब भाई का भरण-पोषण करना चाहिए । मित्र की विपत्ति से
रक्षा करनी चाहिए । बन्धुओं और मित्रों के साथ ऐसा ही व्यवहार
करने से बलि याचकों का कल्पवृक्ष बना हुआ था ॥ ९० ॥
न कुर्यादभिचारोग्रवध्यादिकुहकाः क्रियाः ।
लक्ष्मणेनेन्द्रजित् कृत्याद्यभिचारमयो हतः ॥ ९१ ॥