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रहि
रुचावचोद्र्भमित विषाणकोटिरुच्चैःश्रवो
सोऽपि संक्रन्दन
इव कशाभिर्भीषणं[^2] हेषमाणः शिथिलप
बन्ध उत्प्रबन्धकलकले सुरकुले बभ्राम
एवंविधकोलाहल जनितोत्साहस्तत्क्षणमीशान-
वृषोऽपि धर्मकालवलाहक इ
मुन्ननाद!
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अत्रान्तरे कलकलै
कि
क्लिष्टोरगेन्द्रशयनः परि[^5]वृत्य पार्श्वे
उर्वीरमा
दुत्तस्थिवान् मुरहरः स्मयमान एव
4. "
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