2023-07-23 15:06:56 by jayusudindra
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भर्तृहरिसुभाषितसंग्रह
छेदेऽपि चन्दनतरुः सुरभयति मुखं कुठारस्य ॥ ८०१ ॥
सुतारा विक्रीता स्वजनविर
विनीताया
हरिश्चन्द्रो राजा वहति शलिलं प्रेतसदने
ह्यवस्था तस्यैषाप्यह ह विषमाः कर्मगतयः ॥ ८०२ ॥
सुधामयोऽपि क्षयरोगशान्त्यै नासाग्रमुक्ताफलकच्छलेन ।
अनङ्गसंजीवनदृष्टिशक्तिर्मुखाम्बुजं ते पि
सुवर्णपुष्पितां पृथ्वीं विचिन्वन्ति त्रयो जनाः ।
शूरश् च कृतविद्यश् च यस् तु जानाति सेवितम् ॥ ८०४ ॥
सुवृत्तस्यैकरूपस्य परप्रीत्यै धृतोन्नतेः ।
साधो: स्तनयुगस्येव पतनं कस्य तुष्टये ॥ ८०५ ॥
सुहास्यमुखपङ्कजे नयनचञ्चलालोचने
वदे मधुरभाषणे अतिविलासकामाञ्जने ।
गजेन्द्रगतिसंभ्रमे पदसरोरुहे कोमले
न होति न च यौवनीकषणभावरम्यस्थले ॥ ८०६
सूनुः सच्चरितः सती प्रियतमा स्वामी प्रसादोन्मुखः
स्निग्धं मित्रमवञ्चकः परिजनो निः
आकारो रुचिरः स्थिर
तुष्टे विष्टपहारिणीष्टदह
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