2023-07-22 12:16:23 by jayusudindra
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निजवपु
यद्यपि न भवति हानिः परकीयां चरति रास
असमञ्जसं च दृष्ट्वा तथापि खलु खिद्यते चेतः ॥ ६७२ ॥
यद्यपि भवति कुरूपो वस्त्रालंकारवेषपरिहीनः ।
सञ्जनसभोपविष्टो राजति विद्याधिकः पुरुषः ॥ ६७३ ॥
यद्यपि रटति सरोषं मृगपतिपुरतोऽपि मत्तगोमायुः ।
तदपि न कुप्यति सिंहो विशेषपुरुषेषु कः कोपः ॥ ६७४ ॥
यद्यपि विधिवैगुण्यात् सिंह: पतितोऽपि दुस्तरे कूपे ।
तदपि हि वाञ्छति सततं करिकुम्भविदारणं मनसा ॥ ६७५ ॥
यद्येतत्प्रो
G
१८३
प्रेङ्खत्काञ्चीकला
तत् संसारादसारादु
आया
यद् वंशो विशदो यदङ्गमगदं यद् यावदिच्छं धनं
यत्सौजन्यम
त्]
<flag></flag>त् पत्नीसुवरत्नसूर्य
यहू व
<flag></flag>चायुर्विपुलं तदीश सकलं त्वद्भक्तिवहयाः फलम् ॥ ६७७ ॥
यद् वक्त्रं मुहुरीक्षसे न धनिनां ब्रूषे न चाटुं मृषा
नैषां गर्वगिरः शृणोषि न पुनः प्रत्याशया धावसि ।
671
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