2023-07-21 08:40:18 by jayusudindra
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घनैर्मुक्ता धाराः सपदि पयसस् तान्प्रति मुहु: +
खगानां के मेघाः क इह विहगा वा जलमुचाम्
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अयाच्यो नार्तानामनुपहरणीयो न महताम् ॥ ५१६ ॥
तोयैरल्यैरपि करुणया भीमभानौ निदाघे
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मालाकार व्यरचि भवता या तरोरस्य पुष्टिः ।
सा किं शक्या जनयितुमिह प्रावृषेण्येन वारां
धारासारानपि विकिरता विश्वतो वारिदेन ॥ ५१७ ॥
त्यक्त्वा सङ्गमपारपर्वतगुहागर्भे रह: स्थीयतां
रे रे चित्त कुटुम्बपालन
यस्यैते पुरतः प्रसारित
*
नीयन्ते यमकिंकरैः करतलादाच्छिद्य पुत्रादयः ॥ ५१८ ॥
त्यज दुर्जनसंसर्
कुरु पुण्यमहोरात्रं स्मर नित्यमनित्यताः ॥ ५१९ ॥
त्रैलोक्यं मधुसूदनस्य जठरे सोऽप्येक
सोऽप्यर्
कैलासोऽपि न लक्ष्यते क्षितितले सा यन् न मृद्
दंष्ट्राग्रे विलसत्यसौ विजयते लीलावराहो हरिः ॥ ५२० ॥
ख
त्वमेव चातकाध<flag></flag> ऽसीति केषां न गोचरः ।
किमम्भोदवरास्माकं का
ऐ
ददति तावदमी विषयाः सुखं स्फुरति यावदियं हृदि मृढता।
मनसि तत्त्वविदस् तु विवेचके क्व विषयाः क्व सुखं क्व परिग्रहः ॥ ५२२ ॥
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BERS
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२१ भ. सु.