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अर्थ:---स्व कहिये इस देह में निवास करते हुए अपने
को पहिचानना ही इस शास्त्र में स्वधर्म है, उसी का अनुष्ठान
अर्थात् चेतन साक्षी धर्म की निष्ठा करके शब्द-स्पर्श -आदि
सम्पूर्ण विषयों से चित्त की वृत्ति को हटाना अर्थात् आत्मा का
विचार करने में लीन होकर सब प्रकार के धर्म, लौकिक व्यव-
हारों से उदासीन होना, एवं उपरोक्त सम्पूर्ण साधन सिद्ध होने
पर सामाजिक धर्म परित्याग करने में पाप का स्पर्श नहीं
होता ।
 
शङ्का--तितिक्षा का ?
 
अर्थ:--तितिक्षा क्या है ?
 
समाधान -- --शीतोष्णसुखदुःखादिसहिष्णुत्वम् ।
 
अर्थ:--सरदी गरमी, सुख-दुःख तथा आदि शब्द से मान-
अपमान,
अपमान,
लाभ-अलाभ, जय-पराजय इन सब को समान समझना
इसका नाम तितिक्षा है।
 
अगर एक गरीब मजदूर लोहार की दुकान में दिन भर
उष्णता को सहता हुआ तथा कार्य की गलती होने पर अपमान
को धैर्य से सहता है, तथा व्यापारी जन लाभ हानि को सहते
हैं, शूरवीर लड़ाई में जय-पराजय को सहते हैं, तो क्या ये
सम्पूर्णजन भी तितिक्षा के अधिकारी हैं ? तो इतने शब्दों का
मूल उत्तर वही है कि उपरोक्त जन माणायाश्रित अनित्य पदार्थों
के इच्छुक होकर जगह २ उपरोक्त बातों का सामना करते हैं ।
इस लिये तितिक्षा के अधिकारी नहीं माने जा सकते, तितिक्षा