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भाव रखने वालों को प्राप्त होता है । वेद में भी कहा है कि
"सुहृदः पुण्य-कृत्यान्, द्विषन्तः पापकृत्यान्, गृह्णन्ति" अर्थ--मित्र
पुण्य कर्मों को, शत्रु पाप कर्मों को ग्रहण करता है। इस कारण
ज्ञानी को भविष्य में होने वाले कर्मों का भोग भोगना नहीं
पड़ता। इस कारण ज्ञानी बनो, अज्ञान के पर्दे को हटाकर देखो
वो ईश्वर के दर्शन प्राप्त होंगे।
 
यह सम्पूर्ण ग्रन्थ ईश्वर दर्शन के मार्गों को बता कर अब्
विश्राम लेना चाहता है और सिद्धान्त कहता है कि अगर तुम्हें
ईश्वर के दर्शन की अभिलाषा है तो इस मार्ग को तय करो
फिर आपको दर्शन में कुछ भी बाधा न होगी और इसी ज्ञान
को मुख्य बताते हुए स्मृति में कहा है कि--
 
तनुं त्यजतु वा काश्यां श्वपचस्य गृहेऽथवा ।
ज्ञानसम्प्राष्तिसमये मुक्तोऽसौ विगताशयः ॥
 
अर्थ:--प्रारब्ध कर्मों के समाप्त होने के बाद आत्मज्ञानी
काशीपुरी में शरीर को त्याग करे, अथवा चांडाल के गृह में
शरीर का त्याग करै, उसके लिये स्थान भेद का फल लागू
नहीं होता, क्योंकि मुक्त वही होता है जिसने कि विषय भोगों
की इच्छा त्याग दी है ऐसा वैराग्यवान आत्मज्ञानी पुरुष मुक्त
ही है। यानी ज्ञानी का देहपात कहीं हो, किसी हालत में हो,
<flag>अगर</flag> वह तो मुक्त छुटकारा प्रथम ही हो चुका था जब कि
वह अपने इस देह का साक्षी समझ कर निवास करता था ।