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होने वाले कर्म स्पर्श नहीं कर सकते, जैसे आकाश सर्वत्र व्यापक
होने पर भी सांसारिक कर्म उसे छू नहीं सकते। उसी प्रकार
ज्ञानी को भी कर्म स्पर्श नहीं करते हैं ।
 
परन्तु ज्ञानी के देह से कर्म होते हैं उनका फल उन्हें नहीं भोगना
पड़ता है यह हमने माना, परन्तु किये हुये कर्म तो नष्ट नहीं होते,
उन्हें भोगेगा कौन ? यह एक और सुनने की इच्छा है ?
 
किञ्च ये ज्ञानिनं स्तुवन्ति भजन्ति अर्चयन्ति
तान् प्रति ज्ञानिकृतमागामिपुण्यं गच्छति ।
ये ज्ञानिनं निन्दन्ति द्विषन्ति दुःखप्रदानं कुर्वन्ति
तान् प्रति ज्ञानिकृतं सर्वभागामि क्रियमाणं
यदवाच्यं कर्म पापात्मकं तद्गच्छति ॥
 
अर्थ:--जो (माया में फँसे) संसारी पुरुष हैं वे जो ज्ञानी
की प्रशंसा करते हैं, अथवा सेवा करते हैं तथा सत्कार करते
हैं, उनको ज्ञानी का किया हुआ आगामी पुण्य प्राप्त होता है।
और जो मनुष्य ज्ञानी की निन्दा करता है तथा द्वेष करता है,
तथा ज्ञानी को दुःख देता है उसे ज्ञानी के किये हुये आगामी
पाप-रूपी कर्म प्राप्त होते हैं क्योंकि ज्ञानी का शरीर जब तक
इस संसार में रहता है तब तक पुण्य तथा पाप जरूर होते
रहते हैं। परन्तु उनका फल ज्ञानी को भोगना नहीं पड़ता,
कारण ज्ञानी का जो कुछ आगामी पुण्य होता है वह ज्ञानी के
भक्त प्राप्त करते हैं। और जो पाप होता है वह ज्ञानी से शत्रु