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दुःखों पर ध्यान न देकर निरन्तर आत्मानन्द अपने प्रकाश
की छटा को देखता हुआ मग्न रहा करता है।
 
ज्ञानी पुरुष को कर्मों का भोग--जो कि संचित कर्म हैं तथा
आगामी कर्म हैं सो--नहीं भोगने पड़ते पर प्रारब्ध कर्म भोगने पड़ते
हैं । ज्ञानी के कर्म कैसे नष्ट हो जाते हैं ? उसको यहाँ वर्णन करते हैं ।
 
सञ्चितं कर्म ब्रह्मैवाऽहमिति निश्चयात्मकज्ञानेन
नश्यति । आगामिकर्मापि ज्ञानेन नश्यति,
किञ्च आगामिकर्मणां नलिनीदलगतजल-
वज्ज्ञानिनां सम्वन्धो नास्ति ॥
 
अर्थ:--जब यह पूर्ण विश्वास हो जाता है कि मैं <error>सचिदा</error><fix>सच्चिदा</fix>-
नन्द ब्रह्म हूँ तब असंख्य जन्मों के इकट्ठे किये हुए जो संचित
कर्म हैं उनका नाश हो जाता है, और ज्ञानी पुरुष जो आगामी
कर्म करता है उसका जो फल सुख दुःख उसे नहीं भोगना
पड़ता । क्योंकि आत्म-ज्ञानी कर्मों को करता हुआ उनके
फल स्वर्ग-नरक का आनन्द तथा दुःख की इच्छा नहीं करता
इस लिये उसे आगामी कर्मों का भोग नहीं भोगना पड़ता ।
तथा यों समझो कि जिस प्रकार कमलिनी के पत्ते पर जल
स्थित होने पर भी पत्ते को जल का असर नहीं होता उसी प्रकार
ज्ञानी के देह से पुण्य वा पाप कर्म तो होते हैं परन्तु उनका
ज्ञानी से कुछ भी सम्बन्ध नहीं होता, क्योंकि ज्ञानी अपने स्व-
रूप को इस देह से <flag>मिञ</flag>भिन्न मानता है । इसी कारण ज्ञानी को