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अर्थ:-- असंख्य जन्मों के किये हुए जो कर्म जीवात्मा के
साथ स्थित होते हैं उन्हें संचित कर्म जानना चाहिये ।
 
शंका-- प्रारब्धं कर्म किम् ?
 
अर्थ:-- प्रारब्ध कर्म कौन है ?
 
समाधान-- इदं शरीरमुत्पाद्य इह लोके एवं सुख-
दुःखादिप्रदं यत्कर्म तत्प्राब्धं भोगेन
नष्टं भवति, प्रारब्धकर्मणां भोगादेव
क्षय इति ॥
 
अर्थ:-- पूर्व जन्म में किये हुए पुण्य व पाप रूप कर्मों के
फल स्वरूप सुखदुःख का जो इस जन्म में भोग है वही प्रारब्ध
कर्म कहलाता है । जो स्थूल शरीर के द्वारा सुख दुःख भोगे
जाते हैं वह प्रारब्ध कर्म तो भोगने से ही नाश को प्राप्त होते
हैं, ऐसा निश्चय समझो । क्योंकि
 
'अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाऽशुभम् ।
नाभुक्तं क्षीयते कर्म कल्पकोटिशतैरपि ।
 
अर्थात् पूर्व जन्म के किए हुए शुभ वा अशुभ कर्म हमें
अवश्य ही भोगने पड़ेंगे। क्योंकि बिना भोगे करोड़ों कल्पों
(महाप्रलयों) में भी कर्म नष्ट नहीं होते। इसलिये मूर्ख
(मायाश्रित) जब दुःख को देख दुःखी और सुख में अहंकार
युक्त हो अनर्थ कर्मों को संचित करते हैं, और ज्ञानी पुरुष