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है, इनसे मुक्त के लक्षण वर्णन करते हैं, यथा-- न तो मैं ब्राह्मण
हूँ, और न मैं शुशूद् हूँ, और न मैं पुरुष हूँ, किन्तु असंग
(देहादि प्रपंच समूह के संसर्ग से रहित) और सच्चिदानन्द
स्वरूप हूँ तथा अपने ही प्रकाश से प्रकाशमान हूँ, दूसरा प्रकाश
है ही नहीं, तथा सम्पूर्ण प्राणियों के अन्तःकरण में निवास कर
देह-इन्द्रियादि की प्रेरणा करने वाला हूँ और चिदाकाश स्वरूप
हूँ यानी सबसे अलग रहता हुआ सम्पूर्ण प्राणियों के बाहर और
भीतर व्यापक हूँ ऐसा जो दृढ़ निश्चय रूप अपरोक्ष ज्ञान जब
होता है तब जीवन्मुक्त कहलाता है ।
 
परन्तु इसमें कहा कि अपरोक्ष ज्ञान वाला जीवन्मुक्त होता है तो
पूछना चाहते हैं कि अपरोक्ष ज्ञान किसे कहते हैं ?
 
शङ्का-- अपरोक्षज्ञानः कः ?
 
अर्थ:-- अपरोक्ष ज्ञान किसे कहते हैं ?
 
समाधान-- ब्रह्मैवाऽहमस्मीत्यपरोक्षज्ञानेन
निखिलकर्मबन्धनविनिर्मुक्तः स्यात् ।
 
अर्थः-- मैं सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म ही हूँ इस प्रकार के
अपरोक्ष अर्थात् साक्षात्कार किये हुए ज्ञान से पुरुष सम्पूर्ण कर्म
बन्धनों करके मुक्त हो जाता है।
 
जब अपरोक्ष समझ गये तब इसमें कहा कि सम्पूर्ण कर्म बन्धनों
से वह मुक्त हो जाता है तो शङ्का होती है कि क्या कर्म भी कई
प्रकार के होते हैं ?