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समर्थन करते हैं कि सर्वज्ञत्वादि विशिष्ट, यानी सर्वज्ञ आदि
विशेषणों करके युक्त जो ईश्वर है वह तत् पद के वाच्यार्थ है
और जो उपाधि शुशून्य (माया से रहित) अर्थात् सर्वज्ञ आदि
विशेषणों से शून्य (यानी वह सर्वज्ञ है और हम नहीं--इत्यादि
जो मायाश्रित ज्ञान उससे रहित) है तथा शुद्ध चैतन्य है,
सो तत् पद का लक्ष्यार्थ है, इस प्रकार से जीव और ईश्वर का
चैतन्य स्वरूप करके अभेद होने में कोई बाधा नर नहीं आती
इसलिये चैतन्य स्वरूप करके जीव और ईश्वर में कुछ सेभेद नहीं
है अर्थात् जीव भी चैतन्य, ईश्वर भी चैतन्य है किन्तु विशेषता
यही है कि जीव मायाश्रित रहने का नाम है, और ईश्वर माया
रहित होने का <error>लक्ष</error><fix>लक्ष्य</fix> है इससे अज्ञान को हटा कर ज्ञानी बनो
फिर देखो कि यह विराट् रूप अपना ही स्वरूप है ।
 
एवं च वेदान्तवाक्यैः सद्गुरूपदेशेन सर्वेष्वपि
भूतेषु येषां ब्रह्मबुद्धिरुत्पन्ना ते जीवन्मुक्ता इत्यर्थः ।
 
अर्थ:-- इस तरह से वेदान्त वाक्शेयों तथा सद्गुरु के उप-
देशों से जिन प्राणियों की सम्पूर्ण जगत् में ब्रह्मबुद्धि उत्पन्न हो
जाती है अर्थात् सर्वत्र सच्चिदानन्दस्वरूप ब्रह्म ही देखते हैं वे
पुरुष जीवन्मुक्त की श्रेणी को प्राप्त होकर आनन्द का अनुभव
करते हैं। जैसा कि तुलसीदासजी ने भी कहा है--

सियाराम मय सब जग जानी ।
करौं प्रणाम जोरि युग पानी ॥