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(घड़ा के) स्वरूप हो जाता है, उसी प्रकार माया नष्ट होने पर
जीव भी ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त हो जाता है, और ज्ञान होने से पहले
माया के वशीभूत होने के कारण अपने को ईश्वर से भिन्न जानता
है, अर्थात् माया के जो कार्य स्थूल और सूक्ष्म दो शरीर उनके वशी-
भूत होने से विषय भोगों के आनन्द के सुख की इच्छा करता हुआ,
अनेक प्रकार के कर्मों को करता है, और उन कर्मों के फलस्वरूप
जो स्वर्ग नरकादि के सुख दुःख तिनको भोगता है, परन्तु वह वास्तव
में "सच्चिदानन्द" आत्मस्वरूप है, फिर भी अविद्या रूप उपाधि से
जीव आत्मा कहलाता है ।
 
मायोपाधिः सन् ईश्वर इत्युच्यते ।
एवमुपाधिभेदाज्जीवेश्वरभेददृष्टिर्यावत्
पर्यन्तं तिष्ठति तावत् पर्यन्तं जन्ममरणा-
दिरूपसंसारो न निवर्तते, तस्मात्
कारणात् न जीवेश्वरयोर्भेदबुद्धिः कार्या ।
 
अर्थ:--हम माया की उपाधि ( जब तक प्रकृति को सत्य
मानते हैं,) से अपने से बाहर ईश्वर नाम से प्रार्थना किया
करते हैं, परन्तु वास्तविक में जो परमात्मा है वह जीव और
ईश्वर की उपाधि से रहित होकर, शुद्ध चैतन्य तथा स्वप्रकाश
स्वरूप है, इस प्रकार उपाधि (माया संगी) के साथ जब तक
मनुष्य को जीव और ईश्वर में भेद (अलग २) बुद्धि रहती
है तब तक जन्म लेना और मरना इत्यादि सुख दुःख रूपी जो