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जानाति, अविद्योपाधिः सन् आत्मा
जीव इत्युच्यते ।
 
अर्थ:--इस स्थूल शरीर का अभिमानी जो जीव है वह
ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है, आप कहो कि प्रतिबिम्ब किसे कहते
हैं ? तो सुनो “तदधीनत्वे सति तत्सदृशत्वम् ?" और भी कहा
है कि उपा-(धिनिमित्तस्वप्रतियोगिकव्याप्यवृत्तिमेदकत्वे सत्यु-
पाधिपरिच्छिन्नत्वम्)-ध्यन्तर्गतत्वे सति औपाधिकपरिच्छेद-
शून्यत्वे सति बहिःस्थितस्वरूपकत्वम् । घटाकाशादिवारणाय द्विती-
यम्, दर्पणाद्यन्तर्गततदवयववारणाय तृतीयमिति रत्नावल्पाम् ।
 
प्रतिबिम्ब उसे कहते हैं जो एक ही रूप से दो का बोध
हो। जैसे सूर्य को दर्पण में देखने पर दूसरे का बोध होता
है परन्तु सूर्य एक ही है, इसी प्रकार ब्रह्म भी पिण्ड (शरीर)
में निवास करता हुआ प्रकृति कहिये अपने स्वभाव से ब्रह्म का
भिन्न रूप जानता है और वही आत्मा अविद्या रूप उपाधि
करके जीव कहलाता है।
 
उदाहरण--
 
जैसे--एक दीपक और एक घड़ा लाओ। पश्चात् दीये को जलाकर
ऊपर उस घड़े को औंघा रख उसके चारों तरफ पाँच छेद करके देखो
एक दीपक का प्रकाश पाँच भागों में बँटकर अलग २ प्रकाश करता
है, अगर उस <error>घोड़े</error> <fix>घड़े</fix> को दीपक के ऊपर से हटा लिया जाय तो वह
प्रकाश जो पांच हिस्सों में प्रकाश करता था वह बिम्बभूत होकर घट