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तत्त्व पुष्प पंच जान - माया फुरुवारी ॥२॥ तुम०
इन्द्रिय दस बखान, पञ्च कर्म पञ्च ज्ञान ।
मस्तक में मन को ठान-बुद्धि विस्तारी ॥३॥ तुम०
माया सङ्ग जीव होय, जानत है मेद दोय ।
भोगत है कर्म जोय-लिप्सा अति भारी ॥४॥ तुम०
योगी जन करत ध्यान, मुनिना सह करत गान ।
कामिनी की तिरछी तान-छोड़ दे "विहारी" ॥५॥
 
अब इस विषय को थोड़ी देर के लिये बन्द कर आराम
करें, क्योंकि पूर्वार्ध में कई प्रकार की शङ्का समाधान पड़ते
सुनते चित्त ऊब गया होगा, परन्तु इसके उत्तरार्ध में सृष्टि की
उत्पत्ति तथा जीवेश्वर का एकत्व होकर भी किस प्रकार मिश्र
प्रतीत होता है, तथा माया किसे कहते हैं ? तथा कैसे निर्माण
हुई ? तथा शरीर को सुख-दुःख क्यों भोगना पड़ता है?
इत्यादि का उल्लेख होगा इसलिये यहाँ विश्राम करना ठीक
है । ॐ शान्तिः ३
 
इति जयपुरराज्यान्तर्गत नवलगढ़-निवासि-काशीस्थ -
श्री चन्द्रमहाविद्यालयसामुद्रिक शास्त्राध्यापक-
पण्डित-श्रीबै जनाथशर्मकृतसोदाहरण-
सरलार्थ-सहित-तत्त्वबोध-टीकार्या
पूर्वार्धः समाप्तः ।
ॐ शान्तिः ३ ।
 
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