2022-07-25 06:29:55 by Andhrabharati
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काला प्रकाश बन जाता है । यह दृष्टान्त है, इसे दार्ष्टान्त में घटाते
हैं, कि कपड़े की परछाईं रहते हुए प्रकाश दो रूप में विभाजित
होता है, एक मलिन, एक तेजमय । परन्तु अगर उस कपड़े को हटा
दिया जाय तो सर्वत्र तेजमय प्रकाश दृष्टिगोचर होगा । उस हालत
मैं वह प्रकाश दूसरे को नहीं जान सकता, क्योंकि अगर वह मलिन
प्रकाश एक तरफ हो तो तेज प्रकाश को बोध होगा कि हम में
प्रकाश ज्यादा है उसमें कम । परन्तु एक होने पर उसे अपने के
सिवाय दूसरे का बोध हो नहीं सकता, तो याद रहे कि इस संसार में
जितने आकार तथा नाम <error>दार्षान्तको</error> <fix>दृष्टान्तके</fix> में घटाते
हैं, कि कपड़े की परछाईं रहते हुए प्रकाश दो रूप में विभाजित
होता है, एक मलिन, एक तेजमय । परन्तु अगर उस कपड़े को हटा
दिया जाय तो सर्वत्र तेजमय प्रकाश दृष्टिगोचर होगा । उस हालत
मैं वह प्रकाश दूसरे को नहीं जान सकता, क्योंकि अगर वह मलिन
प्रकाश एक तरफ हो तो तेज प्रकाश को बोध होगा कि हम में
प्रकाश ज्यादा है उसमें कम । परन्तु एक होने पर उसे अपने के
सिवाय दूसरे का बोध हो नहीं सकता, तो याद रहे कि इस संसार में
जितने आकार तथा नाम कोवस्तुयें हैं, वे सब मायाश्रित हैं इसलिये
इस सुपुषुप्ति अवस्था में कहा कि मैं नहीं जानता कि मैं कौन हूँ क्योंकि
यह अवस्था प्राज्ञ (पण्डित) याने निज स्वरूप का ज्ञान प्राप्ति का
पूर्ण लक्षण है। अगर ज्ञान होने के पश्चात् भी यह कहें कि मैं अमुक
हूँ, अमुक स्थान में सोया तो माया का सङ्गी होने का लक्षण बोध
होता है। इसलिये कहा कि मैं नहींजजानता कि कौन हूँ ।
शङ्का-- पञ्चकोशाः के ?
अर्थ:-- पश्चकोश कौन से हैं ?
समाधान-- अन्नमयः प्राणमयो मनोमयो विज्ञान-
मय आनन्दमयश्चेति ।
अथः—-- पहले कोश का नाम अन्नमय, दूसरे का प्राण-
मथय, तीसरे का मनोमय, चौथे का विज्ञाननय, पाँचवें का
आनन्दमय है।
हैं, कि कपड़े की परछाईं रहते हुए प्रकाश दो रूप में विभाजित
होता है, एक मलिन, एक तेजमय । परन्तु अगर उस कपड़े को हटा
दिया जाय तो सर्वत्र तेजमय प्रकाश दृष्टिगोचर होगा । उस हालत
मैं वह प्रकाश दूसरे को नहीं जान सकता, क्योंकि अगर वह मलिन
प्रकाश एक तरफ हो तो तेज प्रकाश को बोध होगा कि हम में
प्रकाश ज्यादा है उसमें कम । परन्तु एक होने पर उसे अपने के
सिवाय दूसरे का बोध हो नहीं सकता, तो याद रहे कि इस संसार में
जितने आकार तथा नाम <error>
हैं, कि कपड़े की परछाईं रहते हुए प्रकाश दो रूप में विभाजित
होता है, एक मलिन, एक तेजमय । परन्तु अगर उस कपड़े को हटा
दिया जाय तो सर्वत्र तेजमय प्रकाश दृष्टिगोचर होगा । उस हालत
मैं वह प्रकाश दूसरे को नहीं जान सकता, क्योंकि अगर वह मलिन
प्रकाश एक तरफ हो तो तेज प्रकाश को बोध होगा कि हम में
प्रकाश ज्यादा है उसमें कम । परन्तु एक होने पर उसे अपने के
सिवाय दूसरे का बोध हो नहीं सकता, तो याद रहे कि इस संसार में
जितने आकार तथा नाम को
इस सु
यह अवस्था प्राज्ञ (पण्डित) याने निज स्वरूप का ज्ञान प्राप्ति का
पूर्ण लक्षण है। अगर ज्ञान होने के पश्चात् भी यह कहें कि मैं अमुक
हूँ, अमुक स्थान में सोया तो माया का सङ्गी होने का लक्षण बोध
होता है। इसलिये कहा कि मैं नहीं
शङ्का-- पञ्चकोशाः के ?
अर्थ:-- पश्चकोश कौन से हैं ?
समाधान-- अन्नमयः प्राणमयो मनोमयो विज्ञान-
मय आनन्दमयश्चेति ।
अथः
म
आनन्दमय है।