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समाधान-- अहं किमपि न जानामि सुखेन
मया निद्राऽनुभूयत इति सुषुप्त्यवस्था । कारण-
शरीराभिमानी आत्मा प्राज्ञ इत्युच्यते ।
 
अर्थ:-- मैं कुछ भी नहीं जानता कि कौन हूँ तथा
कहाँ पर शयन कर रहा हूँ परन्तु मेरे आश्रित इन्द्रियों के
आनन्द (निद्रा) के समय का अनुभव किया इस प्रकार
के अनुभव का नाम सुषुप्ति अवस्था है, इस सुपुषुप्ति अवस्था
के समय में कारण शरीर और आनन्द मय कोश के
आनन्दानुभव का अभिमानी आत्मा प्राज्ञ कहलाता है, यह
प्राज्ञ अपने आनन्द स्वरूप के भान से रहित अज्ञान का साक्षी
तथा इन्द्रियों की सहायता के बिना ही अपनी चैतन्य शक्ति
द्वारा वासनामय विषयों के जानने तथा भोगने वाला है ।
 
इस प्रकार के वचनों को सुन के, कि मैं कुछ भी नहीं
जानता तथा कौन हूँ, कहां सोया तब तो शङ्का हुई होगी कि
कहां तो जीव और ईश्वर की एकता और कहां इस प्रकार का
अज्ञान । इस द्विविधा स्वरूप वाक्य को नहीं समझे, तो आपको
उदाहरण द्वारा समझाते हैं।
 
( उदाहरण )

जैसे--

एक कमरे में एक प्रकाश की लाइट ( बिजली ) लगी हुई हो
उसमें नीचे की तरफ से ठीक एक लम्बा काला कपड़ा लटका
देने पर प्रकाश का दो हिस्सा हो जाता है और कपड़े की जगह