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कर्मेन्द्रियदेवताः । वाचो विषयो भाषणम्, पाण्यो-
र्विषयो वस्तुग्रहणम्, पादयोर्विषयो गमनम्, पायो-
र्विषयो मलत्यागः, उपस्थस्य विषय आनन्द इति ।
 
अर्थः-- वाक् (वाणी), पाणि (हाथ), पाद (पैर), पायु
(गुदा), उपस्थ (लिङ्ग-भाग), यह पाँच कर्मेन्द्रिय हैं। अब इनके
देव कहते हैं-- वाणी के देव अभिग्नि हैं, हाथों के देव इन्द्र हैं, पैरों
के विष्णु हैं, गुदा के देवता मृत्यु (यमराज) हैं, लिङ्ग के अधि-
पति ब्रह्मा हैं, ये कर्मेन्द्रियों के देवता हैं। वाणी का कार्य
बोलना, हार्थों का कर्तव्य वस्तु का ग्रहण करना, पैरों का कर्तव्य
चलना, गुदा का कार्य मल का त्याग करना, लिङ्ग का कार्य
आनन्द करना ( मैथुन से जो ज्ञात होता है) इस प्रकार से
कर्मेन्द्रियों के देव तथा उनका कार्य वर्णन किया ।
 
अब इन कर्मेन्द्रियों के देवताओं के होने का कारण कहते
हैं। वाणी के देवता अग्नि कहा सो ठीक है क्योंकि वेद में भी
कहा है कि "मुखादग्निरजायत" अग्नि का कर्तव्य जलाना है तो
वाणी का कार्य भी किसी अशुद्ध कार्य को जलाकर शुद्ध का
प्रकाश करना। हाथों का जो इन्द्र कहा सो भी ठीक; क्योंकि जैसे
देवों में पराक्रमी इन्द्र है वैसे शरीर में पराक्रमी हाथ हैं। अब
पैरों के स्थान में विष्णु का स्थान कहा; क्योंकि विष्णु का
कर्तव्य पालन करना है, जो पालन करता है वह सम्पूर्ण दुःखों
का सामना करते हुए भी दुःख नहीं मानता, वही हालत पैरों
की हैं कि इस शरीर के सम्पूर्ण बोझ को लादे रहने पर भी