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अर्थ:--एक आत्मा सत्य है उससे भिन्न जितने भी दृश्या-
दृश्य पदार्थ हैं तथा नाम रूपात्मक द्वैत जगत् यह सम्पूर्ण
मिथ्या है। यथा--"इदं सर्वं द्वैतजामद्वितीये निदानन्दात्मनि
मायया कल्पितत्वात् मृषैव आत्मैवैकः परमार्थसत्यः सच्चिदा-
नन्दाद्वयोऽहमस्मीति ज्ञानम् । तथाऽन्यदपि तत्त्रपदार्थयोरभेदगो-
चरान्तःकरणवृत्तित्वम् ।" इस प्रकार का जो निश्चय है वही
तत्त्व विवेक है ।
 
अब इस शरीर में आत्मा किसे मानें ? क्या आँख-कान-नाक-पैर
अथवा-प्राणों को या हृदय को आत्मा मानें ? इस प्रकार की शङ्काओं
की निवृत्तियों के हेतु शङ्का करते हैं-
 
शङ्का--आत्मा कः ?
 
अथः आत्मा किसे कहते हैं ?
 
समाधान--स्थूलसूक्ष्मकारणशरीराद्व्यतिरिक्तः पञ्च-
कोशातीतः सन् अवस्थात्रयसाक्षी सच्चिदानन्दस्वरूपः
सन् यस्तिष्ठति स आत्मा ।
 
अर्थ:-जिन इन्द्रियों के आनन्द को आत्मानन्द मान बैठे
थे, वे सब श्रम के कारण थे । आत्मा इन से अलग ही है ।
जैसे--स्थूल, सूक्ष्म, कारण, शरीर से आत्मा को अलग जानो
तथा पञ्चकोशों से भी अलग निवास करने वाला, और तीनों
अवस्थाओं का साक्षी तथा सत्-चित्-आनन्द स्वरूप होकर बाहर
भीतर निवास करता है वही आत्मा है । जिसे ईश्वर और ब्रह्म
भी कहते हैं ।