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आप्टे संस्कृत-हिन्दी-कोश
 

 
अ -- नागरी वर्णमाला का प्रथम अक्षर ।
 
अः [ अव् इ ] 1 विष्णु, पवित्र 'ओम्' को प्रकट करने वाली तीन ( अ उ म्) ध्वनियों में से पहली ध्वनि
-- अकारो विष्णुरुद्दिष्ट उकारस्तु महेश्वरः । मकारस्तु स्मृतो ब्रह्मा प्रणवस्तु त्रयात्मकः ॥ 2 शिव ब्रह्मा, वायु , या वैश्वानर ।
 
(अव्य ) 1 लैटिन के इन ( in ) अंग्रेजी के इन ( in ) या अन (un ) तथा यूनानी के अ ( 3 ) या ( un ) के समान नकारात्मक अर्थ देने वाला उपसर्ग जो कि
निषेधात्मक अव्यय नञ् के स्थान पर संज्ञाओं, विशेषणों एवं अव्ययों के (क्रियाओं के भी) पूर्व लगाया जाता है । यह 'अ' ही 'अऋणिन्' शब्द को छोड़कर
शेष स्वरादि शब्दों में पूर्व 'अन्' बन जाता है ।
'न' के सामान्यतया छः अर्थ गिनाये गये हैं :---
(क) सादृश्य - समानता या सरूपता यथा 'अब्राह्मणः' -- ब्राह्मणः के समान (जनेऊ आदि पहने हुए) परन्तु ब्राह्मण न होकर, क्षत्रिय वैश्य आदि। (ख) अभाव - अनुपस्थिति, निषेध, अभाव, अविद्यमानता यथा "अज्ञानम्" ज्ञान का न होना, इसी प्रकार, अक्रोधः, अनंगः, अकंटकः, अघट:' आदि । (ग) भिन्नता - अन्तर
या भेद यथा 'अपट:' कपड़ा नहीं, कपड़े से भिन्न अन्य कोई वस्तु । (घ) अल्पता
लघुना न्यूनता, अल्पार्थवाची अव्यय के रूप में प्रयुक्त होता है - यथा
'अनुदरा' पतली कमर वाली ( कृशोदरी या तनुमध्यमा) । (च) अप्राशस्त्य - बुराई, अयोग्यता तथा लघुकरण का अर्थ प्रकट करना यथा अकालः , अनुपयुक्त समय ; 'अकार्यम्' न करने योग्य, अनुचित, अयोग्य या बुरा काम । (छ) विरोध
विरोधी प्रतिक्रिया, वैपरीत्य यथा 'अनीतिः' नीतिविरुद्धता, अनैतिकता, 'असित' जो श्वेत न हो, काला ।
उपर्युक्त छः अर्थ निम्नांकित श्लोक में एकत्र संकलित हैं-
तत्सादृश्यमभावश्च तदन्यत्वं तदल्पता ।
अप्राशस्त्यं विरोधश्च नञर्थाः षट् प्रकीर्तिताः ॥ दे० 'न' भी ।
 
कृदन्त शब्दों के साथ इसका अर्थ सामान्यतः "नहीं" होता है यथा 'अदग्ध्वा' न जलाकर, 'अपश्यन्' न देखते हुए । इसी प्रकार 'असकृत्' एक बार नहीं ।
 
कभी-कभी 'अ' उत्तरपद के अर्थ को प्रभावित नहीं करता यथा 'अमूल्य', 'अनुत्तम', यथास्थान ।
 
2 विस्मयादि द्योतक अव्यय – यथा ( क ) 'अ अवद्यम्' यहाँ दया ( आह. अरे ) (ख) 'अ पचसि त्वं जाल्म' यहाँ भर्त्सना, निंदा (धिक, छिः) अर्थ को प्रकट करता है । दे० 'अकरणि' 'अजीवनि' भी । (ग) संबोधन में भी प्रयुक्त होता है यथा 'अ अनन्त' (घ) इसका प्रयोग निषेधात्मक अव्यय के रूप में भी होता है ।
 
3 भूतकाल के लकारों (लङ्, लुङ् और लृङ्) की रूपरचना के समय धातु के पूर्व आगम के रूप में जोड़ा जाता है यथा अगच्छत् , अगमत् , अगमिष्यत् में ।
 
अऋणिन् (वि० ) [ नास्ति ऋणं यस्य न० ब० ] ( यहाँ 'ऋ' को व्यंजन ध्वनि माना गया ) जो कर्जदार न हो, ऋणमुक्त ('अनृणिन्' शब्द भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है ।)
अंश ( चुरा० उभ० अशंयति-ते) बांटना, वितरण करना, आपस में हिस्सा बांटना, 'अंशापयति' भी इसी अर्थ में प्रयुक्त होता है । वि 1 बांटना 2 धोखा देना ।
 
अंशः [ अंश् + अच् ] 1 हिस्सा, भाग, टुकड़ा ; सकृदंशो निपतति - मनु० ९१४७ रघु० ८।१६:- अंशेन दर्शितानुकुलता का० १५९ अंशत: ; 2 संपत्ति में हिस्सा,
दाय स्वतोंशतः - मनु० ८।४०८, ९।२०१; याज्ञ० २।११५ ; 3 भिन्न की संख्या, कभी-कभी भिन्न के लिए भी प्रयुक्त 4 अक्षांश या रेखांश की कोटि ५ कंधा (सामान्यतः 'कंधे' के अर्थ में, 'अंस' का प्रयोग होता है दे०) । सम० अंशः अंशावतार, हिस्से का हिस्सा; अंशि ( क्रि० वि०) हिस्सेदार; अवतरणम्
 
अवतारः – पृथ्वी पर देवताओं के अंश को लेकर जन्म लेना, आंशिक अवतार, ॰तार इव धर्मस्य दश० १५३; महाभारत के आदिपर्व के ६४-६७ तक अध्याय ;
भाज्, हर, हारिन् (वि०) उत्तराधिकारी, सहदायभागी पिण्डदोंशहरश्चैषां पूर्वाभावे
पर: पर: याज्ञ० २।१३२-१३३ . -सवर्णनम् -- भिन्नों को एक समान हर में लाना ; - स्वरः मुख्य स्वर , मूलस्वर ।
 
अंशक: [ अंग् + ण्वुल्, स्त्रियां --अंशिका ] 1 हिस्सेदार, सहदायभागी, संबंधी
2 हिस्सा, खण्ड, भाग, -कम् सौर दिवस ।
 
अंशनम् [ अंश् + ल्युट् ] बांटने की क्रिया ।