This page has been fully proofread once and needs a second look.

शिवताण्डवस्तोत्रम्

महादेवपदद्वन्द्वं निधाय हृदि सुन्दरम् ।
शिवस्तोत्रस्य कुर्वेऽहं भाषाटीकां मनोहराम् ॥
छंद - जटाविपिनतैं जल प्रवाह झरि किय पवित्र थल ।
व्यालजालकी माल लम्बि अवलंबित वर गल ।
डम डम डम डम नाद करत डमरू राजत बहु ।
इमि शिव ताण्डव करत करहु कल्याणसु हम कहु ॥१॥
 
भाषार्थ- जो शिवजी जटारूपी वन से गिरती हुई ऐसी गङ्गाजी के जलप्रवाह
से पवित्र कण्ठ में लटकती हुई बड़े-बड़े सर्पों की माला को धारण करके और
डमड् डमड् शब्दवाले डमरु को बजाते हुए ताण्डव (नृत्य) करते हैं, वे
भोलानाथ हमारा कल्याण करें ॥१॥
 
जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-
विलोलवीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि ।
धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके
किशोरचन्दशेखरे रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥
 
पदयो:- किशोरश्चासौ चन्द्रः स एव शेखरो मस्तकभूषणं यस्य
तस्मिन्मम रतिः प्रीतिः प्रतिक्षणं क्षणं क्षणं प्रत्यस्तु भवतु । किम्भूते?
धगद्धगद्धगदिति शब्देन ज्वलन् ललाटपट्टे पावकोऽग्निर्यस्य तस्मिन् ।
पुनः कीदृशे ? जटा एव कटाहस्तस्मिन्संभ्रमेण वेगेन भ्रमन्ती चासौ ।
निलिम्पन्ते इति निलिम्पा देवाः । 'लिपि चित्रकरणे' । पचाद्यच् ।
प्रतिमासु निर्लिप्यन्त इति यावत् । तेषां निर्झरी नदी श्रीगंगा तस्या
विलोला वीचयश्चञ्चला ऊर्मयस्ता एवं वल्लर्यो लतास्ताभिर्विराजमानो
मूर्द्धा शिरो यस्य स तस्मिन् विश्वेश्वरे॥२॥
 
व्याख्या- जटेति। जटाकटाहसंभ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरीविलोल-
वीचिवल्लरीविराजमानमूर्द्धनि (जटा एव कटाहस्तस्मिन् संभ्रमेण वेगेन
भ्रमन्ती भ्रमणं कुर्वती या निलिम्पनिर्झरी निलिम्पानां देवानां निर्झरी नदी