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विकसने" प्रफुल्लञ्च तन्नीलपङ्कजं च तत् । तस्य प्रपञ्चो विस्तारस्तस्य
यः कालिमा नैल्यं तस्य या प्रभा तामवलम्बितुं शीलं यस्याः सा चासौ
कण्ठकन्दली तस्या रुचिस्तया प्रकर्षेण बद्धा कन्धरा येनासौ प्रफुल्ल
नीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभावलम्बिकण्ठेत्यादि ॥९॥
 
व्याख्या-- प्रफुल्लेति। प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभावलम्बि-
कण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् (प्रफुल्लनीलपङ्कजस्य विकसितनील-
पद्मस्य यः प्रपञ्चो विस्तारस्तस्य कालिम्नः नीलतायाः प्रभावऽलम्बिनी
प्रभां कान्तिम् अवलम्बितुं शीलमस्या अस्तीति या कण्ठकन्दली तस्या
रुच्या प्रबद्धा प्रकर्षेण बद्धा कन्धरा ग्रीवा येन स तम्) स्मरच्छिदं (स्मरं
कामदेवं छिनत्तीति तम्) पुरच्छिदं (पुरं त्रिपुरासुरं छिनत्तीति तम्) भवच्छिदं
(भवं संसारं छिनत्तीति तम्) मखच्छिदं (मखो दक्षयज्ञस्तं छिनत्तीति
तम्) गजच्छिदं (गजो गजासुरस्तं छिनत्तीति तम्) अन्धकच्छिदं (अन्तकः
कालस्तं छिनत्तीति तम्) सदाशिवमहं भजे ॥९॥
 
छंद -- प्रफुल्लित नीले कमल कालिमा कांति कंठपर ।
ताकी प्रभा प्रभास प्रबन्धित गल कन्दलिवर ।
मार त्रिपुर गज यज्ञ अन्ध भवबन्ध विभेदन ।
भजहु सदा सो शंभु कालहूके जे छेदन ॥९॥
 
भाषार्थ-- खिले हुए नीलकमल के विस्तार की श्याम की प्रभा के समान
कण्ठ की सुन्दर कांति से शोभित ग्रीवावाले, कामदेव को भस्म करनेवाले,
पुरदैत्य के नाशक, संसार के भय को काटनेवाले, दक्ष के यज्ञ को विनाश
करनेवाले और गजासुर, अन्धकासुर और यमराज के नाशक, ऐसे शंकर को
सदा भजता हूं ॥९॥
 
अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी-
रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् ।
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥१०॥