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(१४)
 
शिवताण्डवस्तोत्रम्
 
चासौ मेघमण्डली कादम्बिनी नवीनमेघमण्डली तयानिरुद्धं निबद्धं दुर्धरं
दुःखेन धर्तुं शक्यं स्फुरत् प्रकाशमानं यत् कुह्वा अमावस्याया निशीथिन्या
अर्द्धरात्रस्य तमस्तस्य प्रबन्धेन बद्धा कन्धरा ग्रीवा येन सः) निलिम्प -
निर्झरीधरः(निलिम्पानां देवानां निर्झरी गङ्गा तां धरतीति) कृत्तिसुन्दरः
(कृत्त्या मृगचर्मणा हस्तिचर्मणा वा सुन्दरः शोभायमानः) कलानिधान-
बन्धुरः (कलानिधानश्चन्द्रस्तेन बन्धुरः शोभनः) जगद्धुरन्धरः (जगतः
संसारस्य धुरं भारं धरीतीति) एवंभूतः सदाशिवो नोऽस्माकं श्रियं सम्पत्ति
तनोतु विस्तारयतु ॥८॥
 
छंद - मेघनुकी नव घटा घिरकि कहु निशा निबिडतम ।
ताको किय इक ठांव कण्ठ छबि है जाके सम ॥
गंगाधर गजचर्म चारु चन्द्रमा लसत वर ।
करहु सोइ कल्याण नाथ मम जगत धुरन्धर ॥ ८॥
भाषार्थ- नवीन मेघों के मण्डल के कारण कठिनता से पार जाने के
योग्य और चमकते हुए ऐसे अमावस्या के अन्धकार के समान कण्ठवाले,
देवगङ्गा को मस्तक पर धारण किये, मृगचर्म ओढने से शोभायमान, चन्द्रमा
को धारण करने से परम सुन्दर ऐसे जगत् के भार को धारण करनेवाले शंकर
हमारी सम्पत्ति को बढावें ॥८॥
 
प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् ।
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥ ९॥
पदयो- प्रफुल्लते। अन्तको यमस्तं छिनत्ति यस्तमहं भजे सेवे ।
कीदृशम्? स्मरं छिनत्तीति स्मरच्छित् तमित्यर्थः । एवं पुरं त्रिपुरं छिनत्ति
तथा तम् । पुनः भवं संसारं मखं दक्षयज्ञं गजं गजासुरं अन्धकं छिनत्ती-
त्यादि चत्वारि विशेषणानि । पुनः किम्भूतम् ? प्रकर्षेण फुल्लति 'फुल्ल