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सुता दक्षस्यादौ
सूते जगन्ति भवती
 
सौन्दर्यविभ्रम
स्तुमस्त्वां वाचं
 

 
(४) ग्रन्थोद्धृतप्रमाणानाम काराद्यनुक्रमणिका
 
श्लो. पु.
 
अभिर्वहिश्शुचिस्तेजः
अझीषोमात्मकं चक्रं
 
अरष्टोत्तरशतं
 
अज गतौ
 
A
 
अतिरम्यतरे वत्र
 
अथ यो न वेद
 
अथ षोडशनित्यानां
 
अदितिः पाशं प्रमुमोक्त
 
अधोमुखं चतुष्कोण
अध्यग्न्यध्यावाहनिकं
 
अध्यवसितप्राधान्ये
 
अध्यवसायव्यापार
 
अनिच्छयापि संस्पृष्टः
 
अन्तःपुरप्रवेशः
 
अन्तमः प्रविशन्ति
 
सौन्दर्यलहरी
 
श्लो. पु.
28 313 स्थूलासु मूर्तिषु
 
4 295
 
अन्यास्तु शक्तयः
 
अपरशिवोदित
अर्पा रसमुदयं सन्
अपेत वीत
 
1 294
 
12 301 हर्तु त्वमेव भवसि
 
280
 
अरुणाख्यां भगवतीं
.4 अर्थशव्दाम्मत्वर्ये
34 8 अर्थी समर्थी विद्वान्
अर्ये कृते च तादर्थ्ये
 
50 23
 
36
 
9
 
अविनाभावसम्बन्धः
 
16 17
 
93
 
288 12
 
194 16
 
22 11
 
172 7
 
130 15
 
130 14
 
64
 
6
 
189 2 आण्डोभव ज मा
 
43
 
286 7
 
273 5 आद्या कारणमन्या
122 18 आन्ध्यमापद्यते नूनं
 
43
 
8 आन्तराराधनपरा:
 
अशुतासरशृतासश्च
 
अष्टाचक्रा नवद्वारा
 
अष्टोत्तरशतं वह्नेः
 
आजसेरसुक्
 
आज्ञात्मकद्विदळ
 

 
11 आत्मन आकाशस्संभूतः
आदित्यैरिन्द्रः
 
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इलो. पु.
 
29 308
 
24 307
 
श्लो. पु.
 
53 18
 
192
 
8
 
192 10
 
188
 
4
 
22
 
9
 
281 14
 
42 12
 
38 17
 
48 13
 
42 15
 
8
 
121
 
36
 
123 13
 
35 16
 
103 8
 
50 19
 
97
 
9
 
6