2023-02-16 08:27:07 by ambuda-bot
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भाई पल्लवितैः
आधारमारुत
आनन्दमन्थर
आनन्दलक्षण
आविर्भावस्पुलक
आव्या शशिखण्ड
इच्छानुरूपं
इन्दोर्मध्यगतां
उत्तप्तहेमरुचिरे
उद्दामकाम
उन्मत्ता इव
एकैकं तव देवि
एतं किं नु हशा
कणास्तदीप्तीनां
कलामाज्ञां प्रज्ञां
आ
ऐ
ऐन्द्रस्येव शरासनस्य
कल्पद्रुमप्रसव
कल्पोपसंहरण
इ
क
सौन्दर्यलहरी
श्लो. पु.
19 294
18
297
1 300
306
19
4
304
11 292 गणेशबटुकस्तुत
16 297
8 301
22 298
24 298
3 300
6 292
6 300
कालाग्निकोटिरुचि
कुलं केचित्प्राहुः
कुवलयदलनीलं
किं किं दुःखं दनुज
1 291
चञ्चत्काञ्चन
चण्डि त्वच्चरणा
चतुष्पन्नान्ताः
चर्माम्बरं च
जगत्काये कृत्वा
जन्तोरपश्चिमतनोः
जातोप्यल्पपरि
ज्योतींषि यद्दिवि
तटस्कोटिज्योति
वल्लीं नित्यं
त्वं चन्द्रिका शशिनि
स्वत्पादपङ्कज
त्वद्रपमुहसित
29 313 स्वपैकनरूपण
17 311 त्वयासौ जानीते
8 296 त्वां व्यापिनीति
10 305 त्वामैन्दवीमिव
ग
च
ज
त
CC-0. Jangamwadi Math Collection. Digitized by eGangotri
३५७
श्लो.
30 308
10
310
32
308
16 302
25 298
10 292
13 293
9 310
9 304
20 312
11 305
12 293
21 306
8.310
25 313
20 306
7 295
28 299
27 299
35 314
23 298
20 298
आधारमारुत
आनन्दमन्थर
आनन्दलक्षण
आविर्भावस्पुलक
आव्या शशिखण्ड
इच्छानुरूपं
इन्दोर्मध्यगतां
उत्तप्तहेमरुचिरे
उद्दामकाम
उन्मत्ता इव
एकैकं तव देवि
एतं किं नु हशा
कणास्तदीप्तीनां
कलामाज्ञां प्रज्ञां
आ
ऐ
ऐन्द्रस्येव शरासनस्य
कल्पद्रुमप्रसव
कल्पोपसंहरण
इ
क
सौन्दर्यलहरी
श्लो. पु.
19 294
18
297
1 300
306
19
4
304
11 292 गणेशबटुकस्तुत
16 297
8 301
22 298
24 298
3 300
6 292
6 300
कालाग्निकोटिरुचि
कुलं केचित्प्राहुः
कुवलयदलनीलं
किं किं दुःखं दनुज
1 291
चञ्चत्काञ्चन
चण्डि त्वच्चरणा
चतुष्पन्नान्ताः
चर्माम्बरं च
जगत्काये कृत्वा
जन्तोरपश्चिमतनोः
जातोप्यल्पपरि
ज्योतींषि यद्दिवि
तटस्कोटिज्योति
वल्लीं नित्यं
त्वं चन्द्रिका शशिनि
स्वत्पादपङ्कज
त्वद्रपमुहसित
29 313 स्वपैकनरूपण
17 311 त्वयासौ जानीते
8 296 त्वां व्यापिनीति
10 305 त्वामैन्दवीमिव
ग
च
ज
त
CC-0. Jangamwadi Math Collection. Digitized by eGangotri
३५७
श्लो.
30 308
10
310
32
308
16 302
25 298
10 292
13 293
9 310
9 304
20 312
11 305
12 293
21 306
8.310
25 313
20 306
7 295
28 299
27 299
35 314
23 298
20 298