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पुराने साहित्यिक संकल्प, वहां फिर सजीव होने लगे। सहवासी मित्रगण भी हमारी रुचि और शक्तिका परिचय
प्राप्त कर, हमको उसी संकल्पित कार्य में विशेष भावसे लगे रहनेकी सलाह देने लगे। मित्रवर श्रीमुंशीजी, जो गूज-
रातकी अस्मिता के सर्वश्रेष्ठ प्रतिनिधि हैं और जो गूजरातके पुरातन गौरवको आबाल-गोपाल तक हृदयंगम करा देनेकी
महती कला विभूतिसे भूषित हैं, उनका तो दृढ आग्रह ही हुआ कि और सब तरंग छोड कर वही कार्य करने ही से
हम अपना कर्तव्य पूरा कर सकते हैं। अन्यान्य घनिष्ठ मित्रोंका भी यही उपदेश हमें वहां बैठे बैठे वारंवार मिलने
लगा और जेलखानेसे मुक्त होते ही हमें वही अपने पुराने बही-खाते टटोलनेकी आज्ञा मिलने लगी।
 
संवत् १९८६ के विजयादशमीके दिन, मित्रवर श्रीमुंशीजीके साथ ही हमें जेलसे मुक्ति मिली । हम बम्बई हो
कर अहमदाबाद पहुंचे। यद्यपि जेलखानेके उक्त वातावरणने मनको इस कार्यकी तरफ बहुत कुछ उत्तेजित कर दिया
था, तो भी देशकी परिस्थितिका चालू क्षोभ, रह रह कर मनको अस्थिर बनाता रहता था । अखिरमें श्रीमान् बाबू
बहादुरसिंहजी सिंघीका, शान्तिनिकेतन आ कर जैन साहित्यके अध्ययन अध्यापनकी व्यवस्था हाथमें लेनेका आग्रह पूर्ण
आमंत्रण मिलनेसे, और हमारे सदैवके सहचारी परमबन्धु पण्डित प्रवर श्रीसुखलालजीकी भी तद्विपक वैसी ही आला
होनेसे, हम शान्तिनिकेतन आ पहुंचे। यहां विश्वभारतीके ज्ञानमय वातावरणने हमारे मनको एकदम उसी ज्ञानोपासना में
फिर स्थिर कर दिया और हमारी जो वह चिर संकल्पित भावना थी, उसको यथेष्ट समुत्तेजितकर दिया। साथ ही में,
उस संकल्पको कार्यमें परिणत होनेके लिये, जिस प्रकारकी मनःपूत साधन-सामग्रीकी अपेक्षा, हमारे मनमें गूढ
भावसे रहा करती थी, उससे कहीं अधिक ही विशिष्ट सामग्री, सञ्चरित्र, दानशील, विद्यानुरागी श्रीमान् बहादुर-
सिंहजी सिंघीके उत्साह, औदार्य, सौजन्य और सौहार्द द्वारा प्राप्त होती देख कर, हमने बडे आनन्दसे इस सिंघी
जैन ज्ञानपीठके संचालनका भार उठाना स्वीकार किया ।
 
यद्यपि, प्रारंभ में हमने इस स्थानका, जैनवाङ्मयका अध्ययन अध्यापन करानेकी दृष्टि से ही स्वीकार किया; लेकिन
हमारे मनस्तलमें तो वही पुराना संकल्प दटा हुआ होनेसे, यहां पर स्थिर होते ही, वह संकल्प फिर सहसा मूर्ति-
मान होकर हमारे हृदयांगणमें नाचने लगा, और वही पुरानी ऐतिहासिक सामग्री, जिसको हमने आज तक, मुँजीकी
पुँजीकी तरह बडे यत्नसे संचित रख कर बन्दी बना रखी है, हमारे मानसचक्षुके आगे खडी हो कर, कटाक्षपूर्ण टक-
टकी लगा कर ताकने लगी । हमारा व्यसनी मन फिर इस कामके लिये पूर्ववत् ही लालायित और उत्सुक हो उठा।
 
प्रसङ्ग पाकर हमने अपने ये सब विचार ज्ञानपीठके संस्थापक श्रीमान् बहादुरसिंह बाचूसे कह सुनाये; और
'ज्ञानपीठ' के साथ एक 'ग्रन्थमाला' भी स्थापित कर जैन साहित्यके रत्नतुल्य विशिष्ट ग्रंथोंको, आदर्शरूपसे तैयार कर-
करवा, प्रसिद्धि में लानेका प्रयत्न होना चाहिए, इस वारेमें सहज भावसे प्रेरणा की गई । इन बातों को सुनते ही सिंधी-
जीने, उसी क्षण, बडे औदार्य के साथ, अपनी सम्पूर्ण सम्मति हमें प्रदान की और ऐसी 'ग्रंथमाला' के प्रारंभ करनेका
और उसके लिये यथोचित द्रव्यव्यय करनेका यथेष्ट उत्साह प्रकट किया। इसके परिणाममें, सिंघीजीके स्वर्गीय पिता
साधुचरित श्रीमान् डालचन्दजी सिंघीकी पुण्यस्मृति निमित्त इस सिंघी जैन ग्रन्थमाला का प्रादुर्भाव हो कर, आज
इसका यह प्रथम 'मणि'- केवल 'मणि' ही नहीं 'चिन्तामणि' - पाठकोंके करकमलमें समर्पित हो रहा है ।
इस ग्रंथके पूर्व संस्कारणादिका परिचय.
 
विदेशीय विद्वानोंमें, सबसे पहले इस ग्रन्थका परिचय, किन्लॉक फार्बस साहबको हुआ जिन्होंने गूजरातके इति-
हासका रासमाला नामक सबसे पहला और अनेक बातों में अपूर्व मन्थ लिखा । रासमाला के लिये ऐतिहासिक
सामग्री इकट्ठी करनेका उपक्रम, जब फार्बस साहबने शुरू किया तब, प्रारम्भही में उन्हें वीरचन्द भण्डारी नामक एक
शिक्षित जैन गृहस्थका अमूल्य सहकार मिल गया, जिसकी सहायतासे उन्हें गूजरातके पाटणके किसी जैनयतिजीके
पास, प्रस्तुत प्रन्थकी एक प्रति प्राप्त हो गई । रासमालाके पूर्वभाग के प्रणयनमें प्रबन्धचिन्तामणिसे बहुत कुछ सहायता ली