2023-02-21 15:33:08 by ambuda-bot
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ले कर निश्चित करना आवश्यक था । अत एव उस संस्थाके द्वारा ऐसे साहित्यका निर्माण और प्रकाशन करना
समुचित था जो किसी एक ही सम्प्रदाय या साम्प्रदायिक साहित्यका पोषक न हो कर समूचे भारतीय संस्कृतिका
पोषक हो । तदर्थ जैन, बौद्ध, वैदिक और इस्लामिक साहित्यको मी उसके कार्य क्षेत्र में सम्मीलित किया गया
और उसी दृष्टिसे पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली का प्रकाशन चालू किया गया । कुछ प्रासंगिक पुस्तकोंके सम्पादनके
अतिरिक्त, हमने अपने लिये तो वही पुराना संकल्पित कार्य, मुख्य रूपसे मनमें निश्चित कर रखा था; और उसीके
अनुसन्धानमें सबसे पहले हमने इस प्रबन्धचिन्तामणि की एक सुसम्पादित आवृत्ति तैयार करनेका और उसके साथ,
इसीकी पूर्तिरूप, प्रबन्धकोष, कुमारपालप्रबन्ध, वस्तुपालचरित्र, विमलप्रबन्ध आदि ग्रंथ; तथा शिलालेख, ताम्रपत्र,
ग्रन्थप्रशस्तिः-इत्यादि अन्यान्य प्रकारके गूजरातके इतिहासके साधनभूत संग्रह की संकलना करनेका उपक्रम किया ।
प्रबन्धचिन्तामणिका जो संस्करण, आजसे ४५ वर्ष पहले, शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथने प्रकाशित किया था, वह
यद्यपि उस जमानेके मुताबिक ठीक था, लेकिन आधुनिक दृष्टिसे वह बहुत ही अपूर्ण और अशुद्ध है। उसकी पाठ-
शुद्धि ठीक नहीं है, मौलिक और प्रक्षिप्त पाठोंका उसमें कोई पृथक्करण नहीं है और कई पद्योंका - विशेषकर प्राकृत
पद्योंका रूप बडा विकृत कर दिया है । कुछ तो पुरातन लिपिविषयक अज्ञानता, कुछ ऐतिहासिक ज्ञानविषयक अल्प-
ज्ञता, कुछ सांप्रदायिक परंपराविषयक अनभिज्ञता और कुछ प्राकृतादि भाषा विषयक अपरिचितताके कारण उनके
संस्करणमें बहुतसी त्रुटियां रह गईं, जिससे ग्रंथका सुस्पष्ट स्वरूप समझने में कठिनाई पड़ती है। इस लिये सबके पहले
हमने इस ग्रंथकी पाठशुद्धि करने के लिये जैन भण्डारोंमेंसे पुरानी प्रतियां प्राप्त करनेका प्रयत्न किया । यथालभ्य प्रतियां
मिल जानेपर ग्रंथकी प्रेमकापी तैयार की गई और कुछ हिस्सा छपने के लिये प्रेसमें भी दे दिया गया । छपनेका कार्य
प्रारंभ हो कर ग्रन्थके दूसरे प्रकाश तकका हिस्सा जब मुद्रित हो चुका था, तब, कईएक कारणोंको ले कर, हमारा युरोप
जानेका इरादा हुआ । सोचा था कि वहां बैठे बैठे भी इस ग्रंथका मुद्रणकार्य चालू रह सकेगा और युरोपसे लौटते
तक ग्रन्थ पूरा हो जायगा तो फिर तुरन्त आगेका काम प्रारंभ कर दिया जायगा । इस लिये हमने इसकी प्रतियां भी
बहां (जर्मनीमें) जा कर मंगवा लीं। लेकिन युरोपके सामाजिक और औद्योगिक वातावरणने हमारे मनको अपने आजीवन-
अभ्यस्त विषयसे विचलित कर दिया। इन पुरानी बातोंकी खोज-खाज करनेके बदले वहांके जो वर्तमान राष्ट्रीय,
सामाजिक और औद्योगिक तंत्र हैं उनका विशेषावलोकन कर किसी एक सजीव प्रवृत्तिमें संलग्न होनेके तरंग हमारे
मनमें ऊठने लगे और उसी दिशा में कुछ कार्य करनेके विचारोंसे मन व्यस्त रहने लगा । सबब इसके, वहां पर बैठ
कर जो, इस ग्रंथका मुद्रणकार्य समाप्त कर देनेका संकल्प यहांसे करके निकले थे, वह पूरा नहीं हो पाया ।
-
।
सन् १९२९ के डीसेंबरमें हम वापस भारत आये । उस समय, लाहोर काँग्रेस के प्रोग्रामके मुताबिक देशमें नये
विचारोंकी क्रान्तिसूचक लहरें ऊठ रही थीं। एक तो स्वयं युरोपसे मस्तिष्कमें कुछ नये विचार भर कर लाये थे
और दूसरा यहां पर भी उसी प्रकारका भिन्नकार्यसूचक प्रक्षुब्ध वातावरण घनीभूत हो रहा था । गूजरात विद्यापीठ में
भी विद्याका वातावरण न होकर सत्याग्रही युद्धका ही वातावरण गूंज रहा था । इस लिये इस ग्रन्थके, उस अधूरे
पडे हुए कार्यको तत्काल हाथ में लेनेकी कोई इच्छा नहीं होती थी । आखिर में सत्याग्रह - संग्राम छिड ही गया और
देशके सब ही सेवकोंकी तरह, हम भी यथाक्रम ६ मासके लिये नासिकके शान्तिदायक समाधिविधायक कारागरमें
जा पहुंचे । सचमुच ही नासिकके सेंट्रल जेलखाने में जो चित्तकी शान्ति और समाधि अनुभूत की वह जीवनमें
अपूर्व और अलभ्य वस्तु थी । वह जेलखाना, हमारे लिये तो एक परम शान्त और शुचि विद्या-विहार बन गया
था । उसकी स्मृति जीवनमें सबसे बडी सम्पत्ति मालूम देती है। स्वनामधन्य सेठ जमनालालजी बजाज, कर्मवीर
श्रीनरीमान, देशप्रेमी सेठ श्रीरणछोडभाई, साहित्यिकधुरीण श्रीकन्हैयालाल मुंशी आदि जैसे परम सज्जनोंका घनिष्ठ
सम्बन्ध रहनेसे और सबके साथ कुछ न कुछ विद्या विषयक चर्चा ही सदैव चलती रहनेसे, हमारे मनमें वे ही
ले कर निश्चित करना आवश्यक था । अत एव उस संस्थाके द्वारा ऐसे साहित्यका निर्माण और प्रकाशन करना
समुचित था जो किसी एक ही सम्प्रदाय या साम्प्रदायिक साहित्यका पोषक न हो कर समूचे भारतीय संस्कृतिका
पोषक हो । तदर्थ जैन, बौद्ध, वैदिक और इस्लामिक साहित्यको मी उसके कार्य क्षेत्र में सम्मीलित किया गया
और उसी दृष्टिसे पुरातत्त्वमन्दिर ग्रन्थावली का प्रकाशन चालू किया गया । कुछ प्रासंगिक पुस्तकोंके सम्पादनके
अतिरिक्त, हमने अपने लिये तो वही पुराना संकल्पित कार्य, मुख्य रूपसे मनमें निश्चित कर रखा था; और उसीके
अनुसन्धानमें सबसे पहले हमने इस प्रबन्धचिन्तामणि की एक सुसम्पादित आवृत्ति तैयार करनेका और उसके साथ,
इसीकी पूर्तिरूप, प्रबन्धकोष, कुमारपालप्रबन्ध, वस्तुपालचरित्र, विमलप्रबन्ध आदि ग्रंथ; तथा शिलालेख, ताम्रपत्र,
ग्रन्थप्रशस्तिः-इत्यादि अन्यान्य प्रकारके गूजरातके इतिहासके साधनभूत संग्रह की संकलना करनेका उपक्रम किया ।
प्रबन्धचिन्तामणिका जो संस्करण, आजसे ४५ वर्ष पहले, शास्त्री रामचन्द्र दीनानाथने प्रकाशित किया था, वह
यद्यपि उस जमानेके मुताबिक ठीक था, लेकिन आधुनिक दृष्टिसे वह बहुत ही अपूर्ण और अशुद्ध है। उसकी पाठ-
शुद्धि ठीक नहीं है, मौलिक और प्रक्षिप्त पाठोंका उसमें कोई पृथक्करण नहीं है और कई पद्योंका - विशेषकर प्राकृत
पद्योंका रूप बडा विकृत कर दिया है । कुछ तो पुरातन लिपिविषयक अज्ञानता, कुछ ऐतिहासिक ज्ञानविषयक अल्प-
ज्ञता, कुछ सांप्रदायिक परंपराविषयक अनभिज्ञता और कुछ प्राकृतादि भाषा विषयक अपरिचितताके कारण उनके
संस्करणमें बहुतसी त्रुटियां रह गईं, जिससे ग्रंथका सुस्पष्ट स्वरूप समझने में कठिनाई पड़ती है। इस लिये सबके पहले
हमने इस ग्रंथकी पाठशुद्धि करने के लिये जैन भण्डारोंमेंसे पुरानी प्रतियां प्राप्त करनेका प्रयत्न किया । यथालभ्य प्रतियां
मिल जानेपर ग्रंथकी प्रेमकापी तैयार की गई और कुछ हिस्सा छपने के लिये प्रेसमें भी दे दिया गया । छपनेका कार्य
प्रारंभ हो कर ग्रन्थके दूसरे प्रकाश तकका हिस्सा जब मुद्रित हो चुका था, तब, कईएक कारणोंको ले कर, हमारा युरोप
जानेका इरादा हुआ । सोचा था कि वहां बैठे बैठे भी इस ग्रंथका मुद्रणकार्य चालू रह सकेगा और युरोपसे लौटते
तक ग्रन्थ पूरा हो जायगा तो फिर तुरन्त आगेका काम प्रारंभ कर दिया जायगा । इस लिये हमने इसकी प्रतियां भी
बहां (जर्मनीमें) जा कर मंगवा लीं। लेकिन युरोपके सामाजिक और औद्योगिक वातावरणने हमारे मनको अपने आजीवन-
अभ्यस्त विषयसे विचलित कर दिया। इन पुरानी बातोंकी खोज-खाज करनेके बदले वहांके जो वर्तमान राष्ट्रीय,
सामाजिक और औद्योगिक तंत्र हैं उनका विशेषावलोकन कर किसी एक सजीव प्रवृत्तिमें संलग्न होनेके तरंग हमारे
मनमें ऊठने लगे और उसी दिशा में कुछ कार्य करनेके विचारोंसे मन व्यस्त रहने लगा । सबब इसके, वहां पर बैठ
कर जो, इस ग्रंथका मुद्रणकार्य समाप्त कर देनेका संकल्प यहांसे करके निकले थे, वह पूरा नहीं हो पाया ।
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।
सन् १९२९ के डीसेंबरमें हम वापस भारत आये । उस समय, लाहोर काँग्रेस के प्रोग्रामके मुताबिक देशमें नये
विचारोंकी क्रान्तिसूचक लहरें ऊठ रही थीं। एक तो स्वयं युरोपसे मस्तिष्कमें कुछ नये विचार भर कर लाये थे
और दूसरा यहां पर भी उसी प्रकारका भिन्नकार्यसूचक प्रक्षुब्ध वातावरण घनीभूत हो रहा था । गूजरात विद्यापीठ में
भी विद्याका वातावरण न होकर सत्याग्रही युद्धका ही वातावरण गूंज रहा था । इस लिये इस ग्रन्थके, उस अधूरे
पडे हुए कार्यको तत्काल हाथ में लेनेकी कोई इच्छा नहीं होती थी । आखिर में सत्याग्रह - संग्राम छिड ही गया और
देशके सब ही सेवकोंकी तरह, हम भी यथाक्रम ६ मासके लिये नासिकके शान्तिदायक समाधिविधायक कारागरमें
जा पहुंचे । सचमुच ही नासिकके सेंट्रल जेलखाने में जो चित्तकी शान्ति और समाधि अनुभूत की वह जीवनमें
अपूर्व और अलभ्य वस्तु थी । वह जेलखाना, हमारे लिये तो एक परम शान्त और शुचि विद्या-विहार बन गया
था । उसकी स्मृति जीवनमें सबसे बडी सम्पत्ति मालूम देती है। स्वनामधन्य सेठ जमनालालजी बजाज, कर्मवीर
श्रीनरीमान, देशप्रेमी सेठ श्रीरणछोडभाई, साहित्यिकधुरीण श्रीकन्हैयालाल मुंशी आदि जैसे परम सज्जनोंका घनिष्ठ
सम्बन्ध रहनेसे और सबके साथ कुछ न कुछ विद्या विषयक चर्चा ही सदैव चलती रहनेसे, हमारे मनमें वे ही