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सिंह: पञ्जरयन्त्रणां ●
सिद्धिं वञ्चनया वेत्ति
सिद्धिं प्रार्थयता जनेन
सुखस्य मण्ड:
सुचिरं हि चरन
सुपूरा वे कुनदिका
सुप्तं वो शिरः कृत्वा
सुहृदयमिति दुर्जने
सुहृदामुपकार कारणात्
सुहृदि निरन्तर
चित्ते
सुहृद्भिराप्तैः
सूर्ये भर्तारमुत्सृज्य
स्कन्धेनापि वहेच्छं
स्तब्यस्य नश्यति
स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं.
स्त्री कार्यमिदमत्यर्थम्
***
...
22
""
****
...
...
द्विगुणतरी
त्रिवर्गहानिकरम्
पश्यतीहामिां
त्वत्वकाशान
CORRIGENDA
[114
LIL 12
JII 82
I173
Page and line
12, 29 Add I at end of line
14.6 Read शिविरमनुप्रविष्टः
15.26 द्विमोच्य कामुक ●
21.17
24.17
25.20
50.22
51.25
52.7
**
52.18 Add I before भद्र
॥1. 33
[ 13
183
II 16
17
1183
III 56
॥। 73
111 93
III.91
159
IV 12
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते ...
स्थानेष्वेव नियोक्तव्या
स्पृशन्नपि गजो हन्ति
स्वकर्मसंतानविचेष्टिता ने
CORRIGENDA
स्वजनोऽथ सुहृन्नृपो
स्वफलनिचवः शाखाभङ्गं
स्वभावजं तु यन्मित्रं
स्वभावरौद्रमत्युग्रं
स्वल्पस्नायुवसावशेष ●
स्वल्पेऽपि गुणा: स्फीतीभवन्ति
न
पश्यामि
हर्तव्यं ते न
हितकुन्दिरकार्यम्
हितवक्ता मितवक्ता
हीनः शत्रुर्निहन्तव्यः
हुताशज्वालाभे स्थितवति ...
.
54.16
55.1
Page and line
52.29 Read मयत्येका ●
53.16 विश्वसति
19
...
[19
11 57
I 35
111 43
11 91
I 80
। 112
11 88
111 35
19
1 100
111 66
1 81
111 38
III 60
1 109
विरोद्वारं
किंनिमित्तम्
55,10.11, तं विपुलं हृदं
55.20 Add I after वयस्थ
56.14 Read बृहत्स्फिगू नाम
63. 5 Add I at end of line
64.18 Delete I & read I for II
64.19 Delete I
सिद्धिं वञ्चनया वेत्ति
सिद्धिं प्रार्थयता जनेन
सुखस्य मण्ड:
सुचिरं हि चरन
सुपूरा वे कुनदिका
सुप्तं वो शिरः कृत्वा
सुहृदयमिति दुर्जने
सुहृदामुपकार कारणात्
सुहृदि निरन्तर
चित्ते
सुहृद्भिराप्तैः
सूर्ये भर्तारमुत्सृज्य
स्कन्धेनापि वहेच्छं
स्तब्यस्य नश्यति
स्त्रियोऽक्षा मृगया पानं.
स्त्री कार्यमिदमत्यर्थम्
***
...
22
""
****
...
...
द्विगुणतरी
त्रिवर्गहानिकरम्
पश्यतीहामिां
त्वत्वकाशान
CORRIGENDA
[114
LIL 12
JII 82
I173
Page and line
12, 29 Add I at end of line
14.6 Read शिविरमनुप्रविष्टः
15.26 द्विमोच्य कामुक ●
21.17
24.17
25.20
50.22
51.25
52.7
**
52.18 Add I before भद्र
॥1. 33
[ 13
183
II 16
17
1183
III 56
॥। 73
111 93
III.91
159
IV 12
स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते ...
स्थानेष्वेव नियोक्तव्या
स्पृशन्नपि गजो हन्ति
स्वकर्मसंतानविचेष्टिता ने
CORRIGENDA
स्वजनोऽथ सुहृन्नृपो
स्वफलनिचवः शाखाभङ्गं
स्वभावजं तु यन्मित्रं
स्वभावरौद्रमत्युग्रं
स्वल्पस्नायुवसावशेष ●
स्वल्पेऽपि गुणा: स्फीतीभवन्ति
न
पश्यामि
हर्तव्यं ते न
हितकुन्दिरकार्यम्
हितवक्ता मितवक्ता
हीनः शत्रुर्निहन्तव्यः
हुताशज्वालाभे स्थितवति ...
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54.16
55.1
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52.29 Read मयत्येका ●
53.16 विश्वसति
19
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[19
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I 35
111 43
11 91
I 80
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11 88
111 35
19
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111 66
1 81
111 38
III 60
1 109
विरोद्वारं
किंनिमित्तम्
55,10.11, तं विपुलं हृदं
55.20 Add I after वयस्थ
56.14 Read बृहत्स्फिगू नाम
63. 5 Add I at end of line
64.18 Delete I & read I for II
64.19 Delete I