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नाजिवारण लौहानो
नातवृष्टिविधूतस्य
वापीकृपतहागानां
विद्याविक्रमजं योऽति
विद्वानजुरभिगम्यो
विनाप्यर्थैघर:
 
विशेषज्ञो भव सदा
विपदिग्धस्य भक्तस्त्र
 
विपाणसंघह●
त्रिषितज्वररामिव
विष्णु: सूकररूपेण
विस्तीर्णव्यवसायसाध्य ●
वैद्यविद्रजनामात्या
व्यपदेशेऽपि सिद्धिः
 
व्यलीकमपरं परेण
 

 
व्यसनं हि यदा राजा
व्योमैकान्त विहारिणोऽपि
शक्तं युक्तेन संधत्ते
शक्तेनापि सदा जनन
शश्यामि कर्तुमिदं
शत्रवोऽपि हितायैव
शत्रुणा न हि संदध्यात्
शत्रोर्विक्रममज्ञात्वा
 
शशिदिवा करयोः
 
रिपो
 
याव्यादिच्छसि मां
 
शाव्येन मित्रं
 
शातयत्येव तेजांसि
 
शास्त्राण्यघीत्यापि
 
शिबिनापि स्वमांसानि
 
शुष्कन्धने वह्निः
शून्यमपुत्रस्य गृई
शूराः सर्वोपधाशुद्धाः
 
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पञ्चतन्त्रम्
 
41 शोकारतिमयत्राणं
 
11 80
 
॥। 47
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1163
 
1163
 
1. 33
 
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॥। 19
 
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I 45
 
III 112
 
1.96
 
III. 36
 
1 95
 
1 58
 
11.6
 
LIL 100
 
III 80
 
LII 110
 
III 67
 
IC 15
 
124
 
[I. 5
 
III 104
 
IV 16
 
35
 
श्रुतापविदेरेलेचा
श्रुतेन बुद्धिव्र्व्यसनेन
कपोतेन
श्लाघ्यः स एको
पडेव खड मन्त्रस्य
 
संरक्षणं साधुजनस्थ
 
III 68
 
III 92
 
II 34
 
III 18
 
23
 
संरोहतीपुण
 
सहतास्तु हरन्ती मे
 
सकलार्थशास्त्रसार
 
सकृदुष्टं तु यो मित्रं
 
सत मतिमतिक्रम्य
 
सत्यानृता व पकवा
 
सदशाग्रो जनशतान्,
सघन इति किं मदः
 
सन्त एव सतां
 
संन्तोऽपि हि विनश्यन्ति
 
संतोषामृततृप्तानो
 
सन्नस्य कार्यस्य
समृगोरगसारङ्गं
 
संपत्तयः परायत्ता:
 
संप्राप्ते व्यसने न
 
सरसि बहुस्तरामायो
सर्वप्राणविनाशसंशयं ०
सर्वाः संपत्तयस्तस्य
 
I144
 
III 9
 
II 54 सस्निग्बोऽकुशलान्
 
सर्वोपधिसमृद्धस्य
सव्यदक्षिणयोर्यत्र
 
सहते सुहृदिव भूत्वा
 
साषोः प्रकुपितस्यापि
सामादिदण्डपर्यन्तो
 
साम्मैव हि प्रयोक्तव्यं
 
11 95
 
TV 7
 
111 24
 
111 120
 
III 64
 
11 77
 
111 26
 
11 79
 
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11 2
 
कथामुखम् 2
 
...
 
***
 
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17%
 
1 177
 
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11 45
 
1.1 47
 
III 63
 
I 39
 
1 82
 
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II 12
 
I133
 
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