2023-02-25 11:39:15 by Hitu_css
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लसंश्च स्वयंप्रकाशमान इति यावत् तम्
संकर्षणाख्यः
इत्याख्येन) सर्वं जगत् सृजतीति तादृशसंकर्षणशक्तिधरमित्यर्थः
संकर्षणशक्तेरेव परिस्पन्दो न स्वस्येत्याह
पश्चात् कम्पितमिति विरोधाभासः
सुजनेति
मदहरणम्। शिष्टं व्याख्यातार्थम्
शंकर भगवान के सुन्दररूप की छटा तो अवर्णनीय है
है
हुए कुन्द पुष्प के समान धवलवर्ण के हैं। विष्णु भगवान, देववृन्द एवं
इन्द्रादि लोकपाल उस दिव्यरूप को निहार कर भावपूर्ण होकर वन्दना
कर रहे हैं। कानों में सर्प को कुण्डलरूप में धारण कर रखा हैं
'होने पर भी कामपत्नी रति पर अनुकम्पा करते हैं अथ च निश्चल भी
हैं। स्वजन मंगलकारी, गजासुरवधकारी उन्हीं पशुपति की अर्जुनने
आराधना कर पाशुपतास्त्र प्राप्त किया था
चिदम्बरस्थ नटराजरूपधारी उन शंकर भगवान का हम भजन करते हैं
॥६॥
I heartily resort to the Great Dancer Shiva, residing in
the holy place, Chidambaram. (Being an object of direct
vision) he is not capable of being understood by the
faculty of thinking. His dark-coloured throat is attractive
with its resemblance to the colour of a multitude of bees.