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कनकाचलमौलिर्मेरुशिखरं याभ्यां तादृशौ मदोर्जितस्य निर्जर
कुञ्जरस्यैरावतस्य कुम्भसदृशौ गण्डसदृशौ कुचौ यस्याः सा तथा ।
पाठान्तरे जितं कनकाचलस्य मौलिपदं शिखरस्थानं याभ्यां किं च
उज्झितः प्रस्रावितो दुग्धसुनिर्झरो दुग्धप्रवाहो याभ्याम् एवंविधौ
तुङ्गकुचौ यस्यास्तथा । जय जयेति । ।।१६।।
 
जय हो महिषासुर घातिनी ! जय हो मनोहर केशपाश धारिणी।
जय जय शैलपुत्री | तुम्हारे कटितट पर पहन रखा पीताम्बर ऐसा
है कि उसकी चमक से चन्द्रमा की चांदनी भी फिकी पड़ जाती है ।
तुम्हारे चरणों में देव एवं असुर आकर प्रणाम करने लगते है तो उनके
मस्तकों पर भूषण रुप से लगे हुए मणियों से निकलती चमकती
रोशनी के पड़ने से अपनी चमक के साथ तुम्हारे चरणनख ऐसे दिखने
लगते है जैसे कि दस चन्द्रमा एक साथ चमक रहे हों। हे माता !
साहित्य संगीतादि समग्र विद्यारुपी अमृतोपम दुग्ध से पूर्ण उन्नत
उरुःस्थल में शोभित हो रहे तुम्हारे स्तन द्वय ने तो मानो कनकाचल
सुमेरुपुर्वत के शिखरों को ही जीत लिया है, मानो मनमत्त ऐरावत
हाथी के गण्डस्थल को परास्त कर लिया है ।।१६।।
 
Oh Goddess, having lustre which supersedes
that of the moon because of the charing rays
issuing from the yellow silk garment worn