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स्वीय सहायभूतो वा यो महाशबरीगणः महाशबरीरूपधारी सखीगण
इत्यर्थः । तस्य सद्गुणेन संभृता केलिततिर्यस्याः सा | मिलिन्दपाठे
तृतीयपादमेवं पेठुः । निजगणभूतवशाशबलाङ्गणरिङ्गणसंभृतकेलितते
इति । निजगणभूता या वशाः स्त्रियः "वशास्त्रीकरणी च स्याद्”
इत्यमरः। ताभिः शबलं चित्रितं यदङ्गणं तत्र रिङ्गणेन सञ्चरणेन संभृता
केलिततिः यया सा तथेति । जय जयेति । ।।१५।।
 
महालक्ष्मी स्वरुप हे महिषासुरमर्दिनी । महाकालीस्वरुप हे
जटाजूट धारिणी। महासरस्वतीस्वरुप हे शैलपुत्री ! जय जय हो ।
तुम कभी अपने हाथ में मुरली लेकर बजाने लगती हो तो उस की
मंजुल आवाज से कोयल की आवाज भी अभिभूत हो जाती है। लज्जित
हो जाती है । उसे बजाती हुई तुम पर्वतों में घने निकुंजो में पहुँच
जाती हो । तब भ्रमरों का झुंड गुंजार करता हुआ वहाँ पहुँच जाता
है और अपनी आवाज से उस मुरली स्वर को रंजित सुमधुर कर
देता है। तब तुम वहाँ पर आयी हुई अपनी अन्तरंग महाशबरीरुप
धारिणी शबरियों के गण के साथ अति सुन्दर केलि करती हो ।। १५ ।।
 
Oh Goddess, possessed of sweet sound of
cuckoos who are ashamed as their notes are
excelled by the sound of flute in your hand,
residing in the bowers of mountain rendered