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अयि शरणागतेति । शरणागता ये वैरिणां वध्वो
रक्षास्मत्पतिजीवनमिति याचमानास्तासां ये वरा वीराः तेभ्यो वरम
अभयं च प्रयच्छन्तौ करौ यस्याः सा तथा । एतद वैपरीत्येन
त्रिभुवनेति । त्रिभुवनस्य मस्तकशूलमिव ये विरोधिनः तेषां शिरोधौ
कन्धरायां कृतः निक्षिप्तः अमलशूलः करे यस्याः सा तथा । दुमीति
अव्यक्तानुकरणम् । दुमिदुमिता दुं दुं शब्दिता येऽमरदुन्दुभयो
देवदुन्दुभयस्तेषां नादात्मकेन महसा उत्सवेन मुंखरीकृताः प्रतिशब्देन
शब्दायमाना दिङ्निकरा यया सा तथा । तिग्मकरे इति पाठे तस्मिन्
महसि मुखरीकृता तिग्मतालवादनकरा यस्याः सा इति व्याख्येयम्।
जय जयेति । ॥८॥
 
हे अम्बा ! उन वैरियों को भी तुम ने अपने वरद एवं अभय
हाथों से वर एवं अभय दिया जिन की पत्नियाँ अपने पतियों की रक्षा
के लिये तुम्हारी शरणागत हो गयी। इस के विपरीत जो त्रिभुवन
के लिये सरदर्द बने हुए थे उन असुरों की गर्दनों में तुम ने अपने
हस्तस्थ त्रिशूल को धँसाया । उस के बाद विजयी हो कर तुम
जो विजय दुंदुभी बजायी उस की दुम दुम नादा से सारी दिशायें गूंज
उठी । धन्य है तुम्हारी उदारता और युद्ध कुशलता । जय हो
महिषासुरमर्दिनी माता! जय हो रम्य जटाजूट धारिणी
शैलपुत्री <error>ꣳ</error> <fix> </fix> ।।८।।