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किरा. 1 स. 16 श्लो.
 
1
 
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10 स.
 
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शिशु 10 स.
 
3 स.
 
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नैष.
 
स.
 
3 स.
 
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च. रा. अयो.
 
च. भा. 3 स्त.
 
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मुद्रा.
 
सौग.
 
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20 श्लो.
 
4 श्लो
 
40 श्लो.
 
9 श्लो.
 
24 श्लो
 
123 श्लो.
 
100 श्लो.
 
उदन्वानिव ग़म्भीर :..." (प्रता.)
 
दम्भोलिसंरम्भ..." (प्रता)
 
12, 13 श्लो.
 
105 श्लो.
 
33 श्लो.
 
10 श्लो.
 
62 श्लो.
 
ध्वनयस्तत्तद्विशेषपुरस्सरमलङ्काराः पाठसंस्करणादयश्च सम्यगवलोडिता
व्याख्यायामिति तत्रैव द्रष्टव्याः ।
 
रामा. सुन्द. 35, 27 श्लो.
 
शय्या अस्मिन् काव्ये शय्यासौभाग्यं चाप्यनन्यादृशं
सदस्य महतीं काव्यशोभां पुष्णाति गुणपौष्कल्यं च शय्यासौभाग्य
संधाने मुख्यो हेतुः । गुणपौष्कल्यं च काव्यशोभावहमवश्यंभावि काव्य
इति कतिदावश्यकतां भगति काव्यारम्भे । 'निर्दोषाप्यगुणावाणी
न विद्वज्जनरञ्जिनी । पतिव्रताप्यरूपा स्त्री परिणेते न रोचते' इति ।
वदतीव च स्त्रक्रविताशैलीं स्वयमेषा । द्रष्टव्यः स. 11 श्लोकः तद्वया
ख्यया साकम् । गुणारच रचनाश्रया रसधर्मिण: । एते काव्यशोभासंधा
 
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