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कोहो, अण्णुवओगप्पगो हवदि चेदा । ( स. ११५) -गुणाधिग वि
[गुणाधिक] उपयोग के गुणों से अधिक । उवओगगुणाधिगो ।
( स. ५७ ) -मय वि [मय ] उपयोगमय । जीवो उवओगमयो ।
(निय. १०) - लक्खण पुंन [लक्षण] उपयोग के लक्षण, कारण ।
( स. २४) सव्वण्हु णाणदिट्ठो जीवो उवओगलक्खणो णिच्चं।
(स.२४) -विसेसिद वि [विशेषित] उपयोग से निरूपित, जानने
रूप परिणामों से कथित । जीवो त्ति हवदि चेदा,
उवओगविसेसदो पहू कत्ता । (पंचा. २७) -सुप्पा पुं [ शुद्धात्मन् ]
उपयोग से विशुद्ध आत्मा। भावं उवओग-सुद्धप्पा । (स.१८३)
आचार्य कुन्दकुन्द ने उपयोग का
 
लक्षण इस प्रकार प्रतिपादित किया है। उवओगो णाणदंसणं
भणिदो। (प्रव. ज्ञे. ६३) उपयोग को ज्ञान एवं दर्शन के अतिरिक्त
जीव आत्मा के परिणामों की अपेक्षा शुभ, अशुभ और शुद्ध रूप में.
भी प्रतिपादित किया गया है। उवओगो जदि हि सुहो, पुण्णं
जीवस्स संचयं जादि । असुहो वा तध पावं, तेसिमभावे ण
चयमत्थि। (प्रव. ज्ञे. ६४) जीवो य साणुकंपो उवओगो सो सुहो
तस्स ॥(६५)विसयकसाओ गाढो, दुस्सुदिदुच्चित्तदुट्ठ-
गोट्ठिजुदो। उग्गो उम्मग्गपरो उवओगो जस्स सो असुहो॥ (६६)
विशुद्ध आत्मा के उपयोग को णाणप्पगमप्पगं ज्ञानात्मस्वरूप कहा
है।
 
उबकुण सक[उप + कृग्] उपकार करना । (हे. कृगे:कुण:४/६५)
उवकुणदि जो वि णिच्वं । (प्रव.चा. ४९)
 
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