2023-06-14 00:25:14 by suhasm
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सबसे कम । 3. वि [अपर] जिससे अच्छा अन्य नहीं। -सावय पुं
[श्रावक] उत्कृष्ट श्रावक । (सू. २१) दुइयं च उत्तलिंगं उक्किट्टं
अवरसावयाणं च ।
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अवरट्ठिया स्त्री [दे] आर्यिका । (द. १८) अवरट्ठियाण तइयं ।
अवराह पुं [अपराध] अपराध । थेयाई अवराहे कुव्वदि । ( स. ३०१ )
अवराहे (द्वि.ब.स. ३०२ )
अवरूवरुइ वि [अपरूपरुचि ] दूसरे के प्रति ईर्ष्या । (लिं. १३)
अवलंबिय वि [अवलम्बित] लटकता हुआ। (बो. ५०)
अवलोग सक [अव+लोक्] अवलोकन करना, देखना । (निय.६१)
अवलोगंतो (व.कृ.निय. ६१)
अवलोयभोयण न [अवलोकभोजन] आलोकित भोजन,
अहिंसाव्रत की एक भावना का नाम । ( चा. ३२) वयगुत्ती
मणगुत्ती, इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो । अवलोयभोयणाए
अहिंसए भावणा होति ॥ (चा. ३२)
अववद् सक [अप +वद्] निंदा करना । ( प्रव.चा. ६५) अववदि
सासणत्यं, समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि ।
अवस वि [अवश] अपराधीन, स्वतंत्र । (निय. १४२,१४३ )
अवसत्त वि [अवसक्त] लीन, तन्मय । (प्रव.चा.७३)
अवसप्पिणी स्त्री [अवसर्पिणी] अवसर्पिणी काल विशेष,
दशकोडाकोडि सागरोपम-परिमित काल, जिसमें सभी पदार्थों के
गुणत्व / गुणवत्ता में क्रमशः हानि होती है। (द्व.२७)
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सबसे कम । 3. वि [अपर] जिससे अच्छा अन्य नहीं। -सावय पुं
[श्रावक] उत्कृष्ट श्रावक । (सू. २१) दुइयं च उत्तलिंगं उक्किट्टं
अवरसावयाणं च ।
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अवरट्ठिया स्त्री [दे] आर्यिका । (द. १८) अवरट्ठियाण तइयं ।
अवराह पुं [अपराध] अपराध । थेयाई अवराहे कुव्वदि । ( स. ३०१ )
अवराहे (द्वि.ब.स. ३०२ )
अवरूवरुइ वि [अपरूपरुचि ] दूसरे के प्रति ईर्ष्या । (लिं. १३)
अवलंबिय वि [अवलम्बित] लटकता हुआ। (बो. ५०)
अवलोग सक [अव+लोक्] अवलोकन करना, देखना । (निय.६१)
अवलोगंतो (व.कृ.निय. ६१)
अवलोयभोयण न [अवलोकभोजन] आलोकित भोजन,
अहिंसाव्रत की एक भावना का नाम । ( चा. ३२) वयगुत्ती
मणगुत्ती, इरियासमिदी सुदाणणिक्खेवो । अवलोयभोयणाए
अहिंसए भावणा होति ॥ (चा. ३२)
अववद् सक [अप +वद्] निंदा करना । ( प्रव.चा. ६५) अववदि
सासणत्यं, समणं दिट्ठा पदोसदो जो हि ।
अवस वि [अवश] अपराधीन, स्वतंत्र । (निय. १४२,१४३ )
अवसत्त वि [अवसक्त] लीन, तन्मय । (प्रव.चा.७३)
अवसप्पिणी स्त्री [अवसर्पिणी] अवसर्पिणी काल विशेष,
दशकोडाकोडि सागरोपम-परिमित काल, जिसमें सभी पदार्थों के
गुणत्व / गुणवत्ता में क्रमशः हानि होती है। (द्व.२७)
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