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अपमत्त वि [अप्रमत्त] प्रमादरहित, सावधान, अप्रमत्त नामक
गुणस्थान । (निय. १५८) अपमत्तपहुदिठाणं, पडिवज्ज य केवली
जादा । (निय. १५८)
 
अपरम वि [अपरम] अपरमभाव, अनुत्कृष्ट । ( स. १२)
अपरमेट्ठिदा भावे । (स. १२)
 
अपरिग्गह वि [अपरिग्रह] धन-धान्य आदि परिग्रह से रहित, व्रत
विशेष, महाव्रत का भेद । ( स. २१०-२१३) तण वि [त्व]
अपरिग्रहत्व। (स.२६४) -समणुण्ण वि [समनोज्ञ] मनोज्ञ और
अमनोज्ञ परिग्रह त्याग । अपरिग्गहसमणुण्णेसु । (चा. ३६) ।
अपरिच्चत्त वि [अपरित्यक्त] नहीं छोड़े हुए, परित्याग से रहित ।
अपरिच्चत्त-सहावेण । ( प्रव. ज्ञे. ३)
 
अपरिणम सक [अपरि+णम्] परिणमन नहीं करना ।
अपरिणमंतम्हि (व.कृ.स.ए.) अपरिणमंतीसु (व.कृ.स.ब.)
अपादग पुं [अपादक] पांव रहित, बिना पैर का, गिंडौला, एक
जन्तु विशेष । (पंचा. ११४) सिप्पी अपादगा य किमी ।
 
अपार वि [अपार] पार रहित, अन्त रहित, अनन्त । ( प्रव. ७७ )
हिंडदि घोरमपारं। (प्रव. ७७)
 
अपुज्ज् सक [अपूजय्] पूजा के योग्य नहीं, अपूजित, अपूज्य ।
(भा.१४२) सवओ लोयअपुज्जो। (भा. १४२)
 
अपुणब्भव पुं [अपुनर्भव] उत्पत्ति रहित, मुक्ति, जन्म-मृत्यु से
रहित । ( प्रव.चा. २४, चा ४५ ) -कामिण वि [कामिन्]
मोक्षाभिलाषी। (प्रव. चा. २४) अपुणब्भवकामिणोध। -कारण न
 
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