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रायकरणं च । (स. १४८)
संसण न [शंसन] प्रशंसा। (चा.११) मग्गणगुणसंसणाए।
संसत्त वि [संसक्त ] संसर्ग, अनुरक्त । ( चा. ३५) वसहि स्त्री
[ वसति] अनुराग पूर्ण निवास स्थान, निवास स्थान से राग।
(चा. ३५)
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संसय पुं [संशय] सन्देह, शङ्का । संसयविमोहविब्भम। (निय ५१ )
संसर सक [सं+सृ] चक्कर काटना, परिभ्रमण करना । ( पंचा: २१
प्रव.ज्ञे. २८, मो.९५) संसारे संसरेइ सुहरहिओ । (मो.९५) संसरेइ
(व.प्र.ए.) संसरमाण (व. कृ. पंचा. २१)
संसार पुं [ संसार] नरक आदि गति में परिभ्रमण, एक जन्म से
जन्मान्तर में गमन, संसार, लोक, जगत् । (पंचा. १२८, स. ११७,
प्रव.ज्ञे. २८, मो. ८५, निय. १०५, भा.८५, शी. २२, द्वा. २) जीव अपने
ही शुभाशुभ कर्मों से मोह के द्वारा आच्छन्न हो कर्त्ता-भोक्ता होता
हुआ सान्त एवं अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है।
में
(पंचा. ६९) जीव जिनमार्ग को न जानता हुआ चिरकाल से जन्म,
जरा, मृत्यु, रोग और भय से परिपूर्ण पांच प्रकार के संसार में
परिभ्रमण करता है। (द्वा. २४) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव ये
पाँच परिवर्तन ही संसार है। (विस्तार के लिए देखें - द्वा. २५ से
३८) - कंतार पुं न [कान्तार] संसार रूपी जङ्गल । (शी. २२)
-गमण न [गमन] संसार गमन। (स. १५४) चक्क न [चक्र ]
संसार चक्र । ( पंचा. १३०) -णिरोह पुं [निरोह ] संसार निरोध
संसारणिरोहणं होइ । (स. १९२ ) -त्थ पुंन [अर्थ] 1. संसारका
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रायकरणं च । (स. १४८)
संसण न [शंसन] प्रशंसा। (चा.११) मग्गणगुणसंसणाए।
संसत्त वि [संसक्त ] संसर्ग, अनुरक्त । ( चा. ३५) वसहि स्त्री
[ वसति] अनुराग पूर्ण निवास स्थान, निवास स्थान से राग।
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संसय पुं [संशय] सन्देह, शङ्का । संसयविमोहविब्भम। (निय ५१ )
संसर सक [सं+सृ] चक्कर काटना, परिभ्रमण करना । ( पंचा: २१
प्रव.ज्ञे. २८, मो.९५) संसारे संसरेइ सुहरहिओ । (मो.९५) संसरेइ
(व.प्र.ए.) संसरमाण (व. कृ. पंचा. २१)
संसार पुं [ संसार] नरक आदि गति में परिभ्रमण, एक जन्म से
जन्मान्तर में गमन, संसार, लोक, जगत् । (पंचा. १२८, स. ११७,
प्रव.ज्ञे. २८, मो. ८५, निय. १०५, भा.८५, शी. २२, द्वा. २) जीव अपने
ही शुभाशुभ कर्मों से मोह के द्वारा आच्छन्न हो कर्त्ता-भोक्ता होता
हुआ सान्त एवं अनन्त संसार में परिभ्रमण करता है।
में
(पंचा. ६९) जीव जिनमार्ग को न जानता हुआ चिरकाल से जन्म,
जरा, मृत्यु, रोग और भय से परिपूर्ण पांच प्रकार के संसार में
परिभ्रमण करता है। (द्वा. २४) द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव ये
पाँच परिवर्तन ही संसार है। (विस्तार के लिए देखें - द्वा. २५ से
३८) - कंतार पुं न [कान्तार] संसार रूपी जङ्गल । (शी. २२)
-गमण न [गमन] संसार गमन। (स. १५४) चक्क न [चक्र ]
संसार चक्र । ( पंचा. १३०) -णिरोह पुं [निरोह ] संसार निरोध
संसारणिरोहणं होइ । (स. १९२ ) -त्थ पुंन [अर्थ] 1. संसारका
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