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विण्डु पुं [विष्णु] 1. विष्णु । (स. ३२१) लोयस्स कुणइ विण्डु ।
( स. ३, २१, ३२२) 2. परमात्मा का एक नाम । (भा. १५०) जो
ज्ञान के द्वारा समस्त लोक-अलोक में व्यापक है, वह विष्णु है।
( भा. १५० )
विण्णेय विकृ[वि+ज्ञा] जानने योग्य, समझने योग्य । (स.२४०,
निय. १११) णिच्छयदो विण्णेयं । (स.२४५)
वित्ति स्त्री [वृत्ति] जीविका, जीवन निर्वाह का साधन, चारित्र ।
वित्तिणिमित्तं तु सेवए रायं । (स.२२४) -णिमित्त न [निमित्त]
आजीविका हेतु, जीविका के कारण। (स.२२४)
वित्थड वि [विस्तृत] विस्तारयुक्त, विशाल । ( प्रव. ६१ )
लोगालोगेसु वित्थडा दिट्ठी । (प्रव. ६१ )
वित्थार पुं [विस्तार] फैलाव, प्रसारण, विस्तार । ( प्रव.ज्ञे. १५,
निय. १७) सच्चेव य पज्जओ त्ति बित्यारो। (प्रव.ज्ञे. १५)
विदिद वि [विदित] ज्ञात, जाना हुआ, सीखा । ( प्रव. ७८,
प्रव.चा.७३) -अत्य पुं न [अर्थ] ज्ञात हुए पदार्थ। एवं विदिदत्यो
जो। (प्रव.७८) - पयत्थ पुं न [पदार्थ] जाने गए पदार्थ। सम्मं
विदिदपयत्था । (प्रव.चा.७३)
विदिय वि [द्वितीय] दूसरा, संख्यावाची शब्द । (निय.५७,
चा.५,२५,२६, भा.११४) विदियस्स भावणाए। (चा. ३३) - बद
पुंन [व्रत] द्वितीयव्रत, सत्यव्रत । (निय. ५७ ) जो साधु राग, द्वेष
और मोह से युक्त असत्य भाषा के परिणाम को छोड़ता है, उसके
दूसरा सत्यव्रत होता है। (निय ५७)
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विण्डु पुं [विष्णु] 1. विष्णु । (स. ३२१) लोयस्स कुणइ विण्डु ।
( स. ३, २१, ३२२) 2. परमात्मा का एक नाम । (भा. १५०) जो
ज्ञान के द्वारा समस्त लोक-अलोक में व्यापक है, वह विष्णु है।
( भा. १५० )
विण्णेय विकृ[वि+ज्ञा] जानने योग्य, समझने योग्य । (स.२४०,
निय. १११) णिच्छयदो विण्णेयं । (स.२४५)
वित्ति स्त्री [वृत्ति] जीविका, जीवन निर्वाह का साधन, चारित्र ।
वित्तिणिमित्तं तु सेवए रायं । (स.२२४) -णिमित्त न [निमित्त]
आजीविका हेतु, जीविका के कारण। (स.२२४)
वित्थड वि [विस्तृत] विस्तारयुक्त, विशाल । ( प्रव. ६१ )
लोगालोगेसु वित्थडा दिट्ठी । (प्रव. ६१ )
वित्थार पुं [विस्तार] फैलाव, प्रसारण, विस्तार । ( प्रव.ज्ञे. १५,
निय. १७) सच्चेव य पज्जओ त्ति बित्यारो। (प्रव.ज्ञे. १५)
विदिद वि [विदित] ज्ञात, जाना हुआ, सीखा । ( प्रव. ७८,
प्रव.चा.७३) -अत्य पुं न [अर्थ] ज्ञात हुए पदार्थ। एवं विदिदत्यो
जो। (प्रव.७८) - पयत्थ पुं न [पदार्थ] जाने गए पदार्थ। सम्मं
विदिदपयत्था । (प्रव.चा.७३)
विदिय वि [द्वितीय] दूसरा, संख्यावाची शब्द । (निय.५७,
चा.५,२५,२६, भा.११४) विदियस्स भावणाए। (चा. ३३) - बद
पुंन [व्रत] द्वितीयव्रत, सत्यव्रत । (निय. ५७ ) जो साधु राग, द्वेष
और मोह से युक्त असत्य भाषा के परिणाम को छोड़ता है, उसके
दूसरा सत्यव्रत होता है। (निय ५७)
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