2023-06-18 08:24:58 by jayusudindra

This page has been fully proofread once and needs a second look.

.
 
.
 
.
 
229
 
फास
पुं न [स्पर्श] स्पर्श,पुद्गल का एक गुण, एक इन्द्रिय का नाम ।

( पंचा.८१, स. ६०, प्रव. ज्ञे. ४०, निय. २७) जाणति रसं फासं ।

(पंचा.११४, ११५)
 

 
फुड्डु
वि [स्पष्ट] व्यक्त, स्पष्ट, विशद । ( भा. १११) फुडु रइयं

चरणपाहुडं चेव। (चा. ४५ )
 
फुर

 
फुर
अक [स्फुर्] चमकना प्रकाशित होना । (भा. १५५)

खमदमखग्गेण विष्फुरंतेण । विष्फुरंतेण (व.कृ.तृ.ए.)

 
फुरिय
वि [स्फुरित] स्फुरित, प्रकाशित, चमकदार (मो. ८)

 
फुल्ल
न [फुल्ल] फूल, पुष्प (बो. १४) जह फुल्लं गंधमयं ।

 
फुल्लित
वि [फुल्लित] फूली हुई। (भा. १५७)

 
फेफस
न [फुप्फुस] फेंफड़ा। (भा. ३९)
 

 

 

 
बंध
सक [ बन्धू] 1. बांधना, नियन्त्रण करना । ( पंचा. १६६,

सं. २८१, निय. ९८, भा.७९) बंधइ ( व.प्र.ए.भा. ७८ ) बंधदि

(व.प्र.ए.स. १७४) बंधए (व.ए.स.२५९) बंधंते
 

(व.प्र.ब.स. १७३) बंधमि (व.उ.ए.स.२६६)
 

 
बंध
पुं [बन्ध] जीवकर्म संयोग, कर्म पुद्गलों का जीव प्रदेशों के

साथ दूध-पानी की तरह मिलना । ( पंचा. १३४, स.१३, बो.८,

भा. ११६) जब आत्मा अशुभ शुभ परिणामों रूप परिणमन

करता है तब वह अनेक प्रकार के पौद्गलिक कर्मों के साथ बंध

को प्राप्त होता है। (पंचा. १४७) कर्मों का बन्ध भाव के निमित्त से

होता है। (पंचा. १४८) बन्ध के चार भेद हैं - प्रकृतिबन्ध,
 
.