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222
पायड वि [प्रकट] व्यक्त, स्पष्ट । (भा. १४९)
पायरण वि [प्राकरण] कार्य करने का अधिकारी, कार्यकर्ता ।
(स. १९७)
पारमपार पुंन [पारमपार] जिसका अन्त नहीं, अनन्त । (पंचा. ६९)
पाल सक [पालय् ] पालन करना, रक्षण करना । ( भा. १०४ )
पालहि / पालेहि (वि. / आ.म.ए.भा.१०४,लिं.११३)
पाव सक [प्र+आप्] प्राप्त करना, ग्रहण करना। (पंचा. १५१,
स.२८९,प्रव.११,निय.१३६,सू.१५, भा. ११५) पाव / पावदि
(व.प्र.ए.मो. १०६,
निय. १३६,
पंचा. १५१)
पावए
(व.प्र.ए.मो. २३) पावंति (व.प्र.ब.पंचा. १३२, स. १५१ )
पाव पुं न [पाप] अशुभकर्म, पाप । (पंचा. १४३, प्रव.७९, स. २६८,
द.६) - आरंभ पुं [ आरम्भ ] पापकर्म । ( प्रव. ७९)
पावारंभविमुक्का । (बो. ४४ ) - आसव पुं [ आस्रव] पापास्रव,
पापकर्मों का प्रवेश द्वार (पंचा. १४१) प्रमाद सहित क्रिया, चित्त
की मलिनता, इन्द्रियविषयों में आसक्ति, दुःख देना, निन्दा
करना, बुरा बोलना इत्यादि आचरण से पाप कर्मों का आव
होता है। (पंचा.१३९) -प्पद पुंन [प्रद] पाप के कारण, पापरूप
कर्म के कारण, अशुभकर्मों के कारण। (पंचा. १४०) चार संज्ञा
( आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) तीन लेश्या (कृष्ण, नील,
कापोत), इन्द्रियों की अधीनता, आर्त रौद्र परिणाम एवं मोहकर्म
के भाव पापप्रद हैं। (पंचा. १४० ) - मलिण वि [ मलिन ] पाप से
मैला। (भा.६९) -मोहिदमदी वि [मोहितमति] पाप से मुग्ध
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पायड वि [प्रकट] व्यक्त, स्पष्ट । (भा. १४९)
पायरण वि [प्राकरण] कार्य करने का अधिकारी, कार्यकर्ता ।
(स. १९७)
पारमपार पुंन [पारमपार] जिसका अन्त नहीं, अनन्त । (पंचा. ६९)
पाल सक [पालय् ] पालन करना, रक्षण करना । ( भा. १०४ )
पालहि / पालेहि (वि. / आ.म.ए.भा.१०४,लिं.११३)
पाव सक [प्र+आप्] प्राप्त करना, ग्रहण करना। (पंचा. १५१,
स.२८९,प्रव.११,निय.१३६,सू.१५, भा. ११५) पाव / पावदि
(व.प्र.ए.मो. १०६,
निय. १३६,
पंचा. १५१)
पावए
(व.प्र.ए.मो. २३) पावंति (व.प्र.ब.पंचा. १३२, स. १५१ )
पाव पुं न [पाप] अशुभकर्म, पाप । (पंचा. १४३, प्रव.७९, स. २६८,
द.६) - आरंभ पुं [ आरम्भ ] पापकर्म । ( प्रव. ७९)
पावारंभविमुक्का । (बो. ४४ ) - आसव पुं [ आस्रव] पापास्रव,
पापकर्मों का प्रवेश द्वार (पंचा. १४१) प्रमाद सहित क्रिया, चित्त
की मलिनता, इन्द्रियविषयों में आसक्ति, दुःख देना, निन्दा
करना, बुरा बोलना इत्यादि आचरण से पाप कर्मों का आव
होता है। (पंचा.१३९) -प्पद पुंन [प्रद] पाप के कारण, पापरूप
कर्म के कारण, अशुभकर्मों के कारण। (पंचा. १४०) चार संज्ञा
( आहार, भय, मैथुन, परिग्रह) तीन लेश्या (कृष्ण, नील,
कापोत), इन्द्रियों की अधीनता, आर्त रौद्र परिणाम एवं मोहकर्म
के भाव पापप्रद हैं। (पंचा. १४० ) - मलिण वि [ मलिन ] पाप से
मैला। (भा.६९) -मोहिदमदी वि [मोहितमति] पाप से मुग्ध
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