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श्वासोच्छ्वास) (बो.३५) जीव प्राणों से युक्त होकर मोहादि
परिणामों से कर्मों के फल भोगता है तथा अन्य नवीन कर्मों को
बांधता है। (प्रव. जे. ५६) -णिबद्ध वि [निबद्ध] प्राणों से युक्त,
प्राणों से संबद्ध।(प्रव.ज्ञे. ५६ ) - बाध पुं [बाध] प्राणों की बाधा,
प्राणों का घात। (प्रव.ज्ञे.५६) पाणाबाधं जीवो।
पाणन [पान] पान, पीने की क्रिया । ( स. २१३)
पाणि पुं [प्राणिन्] 1. प्राणी, जीव, आत्मा, चेतन। (भा. १३४) -त्त
वि [त्व] प्राणों से युक्त, प्राणों वाला । ( पंचा. ३९ ) - वह पुं स्त्री
से
[वध] जीव हत्या, जीवघात। (भा. १३४) 2. पुं [पाणि] हाथ,
कर, भुजा। -पत्त /प्पत्त न [पात्र] हाथरूपी पात्र, कर-पात्र ।
(सू. ७) पाणिपत्तं सचेलस्स। (सू. ७)
।
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पापुण्ण सक [प्र+आप्] प्राप्त होना। (पंचा. ११९) पापुण्णंति य
अण्णं। (पंचा.११९)
,
पायछित्त / पायच्छित्त पुं न [प्रायश्चित्त ] पाप नाशक कर्म,
परिशोध, पापनिष्कृति, दण्ड, तप का एक भेद । (निय. ११३)
व्रत, समिति, शील और संजम रूप परिणाम तथा इन्द्रिय निग्रह
भाव प्रायश्चित्त है। (निय. ११३) क्रोधादि स्वकीय भावों का
क्षमादि भावना से निग्रह करना एवं निज गुणों का चिंतन करना
प्रायश्चित्त है । (निय. ११४) आत्मा का उत्कृष्ट बोध, ज्ञान, एवं
चित्त जो मुनि नित्य धारण करता है, वह प्रायश्चित्त है।
(निय.११६) अनेक कर्मों के क्षय का हेतु जो तपश्चरण है, वह
प्रायश्चित्त है। (निय. ११७)
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श्वासोच्छ्वास) (बो.३५) जीव प्राणों से युक्त होकर मोहादि
परिणामों से कर्मों के फल भोगता है तथा अन्य नवीन कर्मों को
बांधता है। (प्रव. जे. ५६) -णिबद्ध वि [निबद्ध] प्राणों से युक्त,
प्राणों से संबद्ध।(प्रव.ज्ञे. ५६ ) - बाध पुं [बाध] प्राणों की बाधा,
प्राणों का घात। (प्रव.ज्ञे.५६) पाणाबाधं जीवो।
पाणन [पान] पान, पीने की क्रिया । ( स. २१३)
पाणि पुं [प्राणिन्] 1. प्राणी, जीव, आत्मा, चेतन। (भा. १३४) -त्त
वि [त्व] प्राणों से युक्त, प्राणों वाला । ( पंचा. ३९ ) - वह पुं स्त्री
से
[वध] जीव हत्या, जीवघात। (भा. १३४) 2. पुं [पाणि] हाथ,
कर, भुजा। -पत्त /प्पत्त न [पात्र] हाथरूपी पात्र, कर-पात्र ।
(सू. ७) पाणिपत्तं सचेलस्स। (सू. ७)
।
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पापुण्ण सक [प्र+आप्] प्राप्त होना। (पंचा. ११९) पापुण्णंति य
अण्णं। (पंचा.११९)
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पायछित्त / पायच्छित्त पुं न [प्रायश्चित्त ] पाप नाशक कर्म,
परिशोध, पापनिष्कृति, दण्ड, तप का एक भेद । (निय. ११३)
व्रत, समिति, शील और संजम रूप परिणाम तथा इन्द्रिय निग्रह
भाव प्रायश्चित्त है। (निय. ११३) क्रोधादि स्वकीय भावों का
क्षमादि भावना से निग्रह करना एवं निज गुणों का चिंतन करना
प्रायश्चित्त है । (निय. ११४) आत्मा का उत्कृष्ट बोध, ज्ञान, एवं
चित्त जो मुनि नित्य धारण करता है, वह प्रायश्चित्त है।
(निय.११६) अनेक कर्मों के क्षय का हेतु जो तपश्चरण है, वह
प्रायश्चित्त है। (निय. ११७)
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