2023-06-14 00:20:54 by suhasm
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( स. ४०६) पाउगिओ विस्ससो वावि ।
पाओग्ग वि [प्रायोग्य] योग्य, उचित, लायक, उपयुक्त, सक्षम ।
(प्रव.ज्ञे. ७७) पाओग्गा कम्मवग्गणस्स पुणो । (निय. २४)
पाठ पुं [पाठ] अध्ययन, वाचन, पठन, आवृत्ति । ( स. २७४) पाठो
ण करेदि गुणं ।
पाड सक [पातय्] गिराना, डालना, फेंकना । (द. १२) पाए पाडंति
दंसणधराणं ।
पाडिहेर न [प्रातिहार्य]देवताकृत प्रतिहारकर्म, देवकृत पूजा विशेष,
अष्ट प्रातिहार्य ।
पाडुब्भव अक [प्रादुर्+भू] उत्पन्न होना । (प्रव.ज्ञे. ११)
पाडुब्भाव पुं [प्रादुर्भाव] उत्पाद, उत्पत्ति । (प्रव.ज्ञे.१९)
पाण पुं न [प्राण], जीवन के आधारभूत तत्त्व, जीवन शक्ति ।
( पंचा. ३०, प्रव.ज्ञे. ५८, बो. ३०) जीवों के प्राणों की संख्या
क्रमश:- एकेन्द्रिय के चार ( स्पर्शन, काय बल, आयु और
श्वासोच्छवास), द्वीन्द्रिय के छह ( स्पर्शन, रसना, काय बल,
वचनबल, आयु और श्वासोच्छ्वास) त्रीन्द्रिय के सात, ( स्पर्शन,
रसना, घ्राण, वचनबल, कायबल, आयु और श्वासोच्छ्वास )
चुतरिन्द्रिय के आठ (स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, वचनबल,
कायबल, आयु, और श्वासोच्छवास), पञ्चेन्द्रिय असंज्ञी के नौ
(स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, वचनबल, कायबल, आयु
और श्वासोच्छ्वास ) तथा संज्ञी पञ्चेन्द्रिय के दश ( स्पर्शन,
रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण, मनबल, वचनबल, कायबल, आयु, और
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