2023-06-17 11:57:53 by jayusudindra
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पुं [द्वीपायन] द्वीपायन नामक मुनि । (भा. ५०)
दीस
दीस
सक [दृश्] देखा जाना, अवलोकित किया जाना । ( स. ३११,
३२२) दीसइ/दीसए (कर्म. व.प्र.ए.) कर्मणि प्रयोग में दृश् का
दीस आदेश हो जाता है।
दीह
वि [दीर्घ] लम्बा, अधिक, विस्तार । ( भा. ९९ ) काल पुं
[काल] दीर्घसमय, अधिकसमय। (भा.९५) - संसार पुं [संसार],
दीर्घसंसार, जन्मजन्मांतर। (भा. ९९) जो जीव, यह मेरा पुत्र है,
यह मेरी स्त्री है, यह मेरा धन-धान्य है, ऐसी तीव्र आकांक्षा
करता है, वह दीर्घ संसार में परिभ्रमण करता है। (द्व. २४-३८ )
दु
अ [तु] और, तथा, किन्तु, परन्तु, लेकिन, ऐसा, तो, इसलिए,
कि, फिर भी । (पंचा.८९, स. २५३, २१०, भा. १८, मो.४) कालो
दु पडुच्चभवो। (पंचा. २६) सो तेण दु अण्णाणी । (मो.५६)
दु अ [दुर्] खराब, बुरा, दुष्ट, अशुभ । ( प्रव. जे. ६६,निय.१०३,
बो.३६, मो.१६)
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दुइय
वि [द्वितीय] द्वितीय, दूसरा । (सू. २१)
दुक्ख
पुं न [दुःख] पीड़ा, क्षोभ, व्यथा । (पंचा. १२२, स.७४,
प्रव. २०, निय. १७८) जीव के साथ बंधे हुए आम्रव अनित्य,
अशरण और दुःख। (स. ७४) आम्नवों की अशुचिता, और
विपरीतता ही दुःख का कारण है। ( स. ७२) क्खय वि [क्षय ]
दुःखक्षय, दुख का नाश, दुःख रहित (चा. २०) -परिमोक्ख पुं
[परिमोक्ष] दुःखों से पूर्ण मुक्ति, दुःखों से अत्यन्त छुटकारा ।
( पंचा. १०३, प्रव.चा. १ ) - फल पुं न [फल ] दुःखफल दुःख का