2023-06-14 00:20:54 by suhasm
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उत्पन्न होता है, उसीप्रकार मोक्षमार्ग की वृद्धि दर्शन से होती है।
( द. ११) दर्शन से रहित की वंदना नहीं करना चाहिए ।
दंसणहीणो ण वंदिव्वो। ( द. २) -उवओग पुं [उपयोग]
दर्शनोपयोग, पदार्थ का सामान्यावलोकन, निर्विकल्प ज्ञान । इसके
दो भेद किये गये हैं। स्वभाव दर्शनोपयोग और
विभावदर्शनोपयोग। जो इन्द्रियादि साधनों तथा पर पदार्थों की
सहायता से निरपेक्ष मात्र दर्शन है, वह स्वभाव दर्शन है।
(निय. १४) और चक्षुर्दर्शन, अचक्षुर्दर्शन तथा अवधिदर्शन
विभावदर्शन हैं। (निय. १५) - धर पुं [धर] दर्शन को धारण करने
वाला, सम्यग्दृष्टि । (द.१२) - भट्ट वि [भ्रष्ट] दर्शन से भ्रष्ट, दर्शन
से च्युत । (द. ३) दंसणभट्टा भट्टा ।यहां दर्शन का अर्थ सम्यग्दर्शन न
कर ऊपर कहे विशेष पारिभाषिक शब्द के रूप में ग्रहण करना
युक्ति संगत प्रतीत होता है। -भूद वि [भूत ] दर्शनरूप ।
( प्रव.ज्ञे. १०० ) - मूल पुंन [ मूल ] दर्शन का प्रधान, दर्शन का
मुख्य, दर्शन का आधार । ( द. २ ) मग्ग पुं [ मार्ग] दर्शनमार्ग।
(द. १) - मुक्क वि [मुक्त ] दर्शन से मुक्त, दर्शन से रहित ।
दंसणमुक्को य होइ चलसवओ। (भा. ४२) - मुह न [मुख ] दर्शन
सहित।(प्रव.चा.१४)-मोह पुं [मोह ] दर्शनमोह, मोहनीय कर्म का
अवान्तर भेद । (निय ५३) सम्यग्दर्शन की उत्पत्ति में
अन्तरङ्गबाधक कारण दर्शनमोह है। रयण पुंन [ रत्न ] दर्शन
रूपी रत्न। (द. २१, भा. १४६) - विसुद्ध वि [विशुद्ध ] दर्शन से
विशुद्ध, षोडशकारण भावनाओं में प्रथम भावना। (भा. १४
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