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173
तित्ति स्त्री [तृप्ति] तृप्ति, इच्छापूर्ति । (भा. २२)
तित्तिय वि [त्रि-त्रि] तीन-तीन का समूह ।
तित्थ पुं न [तीर्थ ] 1. तीर्थ, तीर्थप्रवर्तक, सर्वज्ञवचन । ( प्रव. १,
बो. २५) निर्मल, साम्यधर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान को
जिन शासन में तीर्थ कहा गया है। (बो. २६) -कर/यर पुंन [कर ]
तीर्थङ्कर, सर्वज्ञ । (भा.७९) तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय से जिसे
समवसरणादि विभूति प्राप्त हो वह तीर्थङ्कर है। 2. न [तीर्थ]
तट, घाट, नाव ।
तिदिय वि [तृतीय ] तीसरा । (निय ५८ ) - वद पुं न [व्रत]
तृतीयव्रत, तीसराव्रत, अचौर्यव्रत । जो ग्राम, नगर एवं वन में
परकीय वस्तु को देखकर उसके ग्रहण के भाव को छोड़ता है,
उसी के तीसरा अचौर्यव्रत होता है। (निय.५८) गामे वा णयरे
वारण्णे वा, पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुचदि गहणभावं, तदियवदं
होदि तस्सेव॥ (निय. ५८)
तिघा वि [ त्रिधा ] तीन प्रकार का । ( प्रव. ३६)
तिमिर न [तिमिर] अन्धकार, अंधेरा। (प्रव. ६७) -हर वि [हर]
अज्ञान को हरण करने वाला ! तिमिरहरा जइ दिट्ठी । (प्रव.६७)
तिय न [त्रिक] तीन का समुदाय । तियेह साहूण मोक्खमग्गम्मि ।
( स. २३५) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इत्यादि
जैसे कोई भी तीन का समूह । -रण न [करण ] तीन करण ।
मन-वचन और काय ये तीन करण हैं। तियरणसुद्धो अप्पं।
(भा. ११४) लोय पुं [लोक] तीन लोक । ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक
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तित्ति स्त्री [तृप्ति] तृप्ति, इच्छापूर्ति । (भा. २२)
तित्तिय वि [त्रि-त्रि] तीन-तीन का समूह ।
तित्थ पुं न [तीर्थ ] 1. तीर्थ, तीर्थप्रवर्तक, सर्वज्ञवचन । ( प्रव. १,
बो. २५) निर्मल, साम्यधर्म, सम्यक्त्व, संयम, तप और ज्ञान को
जिन शासन में तीर्थ कहा गया है। (बो. २६) -कर/यर पुंन [कर ]
तीर्थङ्कर, सर्वज्ञ । (भा.७९) तीर्थङ्कर नामकर्म के उदय से जिसे
समवसरणादि विभूति प्राप्त हो वह तीर्थङ्कर है। 2. न [तीर्थ]
तट, घाट, नाव ।
तिदिय वि [तृतीय ] तीसरा । (निय ५८ ) - वद पुं न [व्रत]
तृतीयव्रत, तीसराव्रत, अचौर्यव्रत । जो ग्राम, नगर एवं वन में
परकीय वस्तु को देखकर उसके ग्रहण के भाव को छोड़ता है,
उसी के तीसरा अचौर्यव्रत होता है। (निय.५८) गामे वा णयरे
वारण्णे वा, पेच्छिऊण परमत्थं । जो मुचदि गहणभावं, तदियवदं
होदि तस्सेव॥ (निय. ५८)
तिघा वि [ त्रिधा ] तीन प्रकार का । ( प्रव. ३६)
तिमिर न [तिमिर] अन्धकार, अंधेरा। (प्रव. ६७) -हर वि [हर]
अज्ञान को हरण करने वाला ! तिमिरहरा जइ दिट्ठी । (प्रव.६७)
तिय न [त्रिक] तीन का समुदाय । तियेह साहूण मोक्खमग्गम्मि ।
( स. २३५) सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इत्यादि
जैसे कोई भी तीन का समूह । -रण न [करण ] तीन करण ।
मन-वचन और काय ये तीन करण हैं। तियरणसुद्धो अप्पं।
(भा. ११४) लोय पुं [लोक] तीन लोक । ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक
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