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(बो.५५)
 
णिज्जर वि [निर्जर] कर्मक्षय, कर्मपरमाणुओं का आत्मा से पृथक्
करना। (पंचा. १०८, स. १३) -णिमित्त न [निमित्त ] निर्जरा के
कारण। (स.१९३) -हेदु पुं [हेतु]क्षय का कारण । (पंचा.१५२)
ज्ञान एवं दर्शन से युक्त, अन्य द्रव्यों के संयोग से रहित, ध्यान
स्वभाव सहित साधु के निर्जरा का कारण होता है। (पंचा. १५२)
णिज्जर सक [निर्+जृ] क्षय करना, नाश करना । णिज्जरमाणो
(व.कृ.पंचा. १५३)
 
णिज्जरण न [निर्जरण] नाश, क्षय । कम्माणं णिज्जरणं ।
(पंचा.१४४) बंधे हुए कर्मप्रदेशों का गलना, एक देश क्षय होना
निर्जरा है। (द्वा. ६६) बंधपदेसग्गलणं णिज्जरणं । निर्जरा दो
प्रकार की है- सविपाक (अपना उदयकाल आने पर कर्मों का
स्वयं पककर झड़ जाना) और अविपाक निर्जरा ( तप आदि के
द्वारा की जाने वाली ) ।
 
णिज्जावय वि [निर्यापक] गुरु के उपदेश को अङ्गीकार करने वाला,
संयम के भङ्ग होने पर गुरु के द्वारा दिया गया प्रायश्चित्त स्वीकार
करने वाला, सल्लेखना ग्रहण करने वाला । (प्रव.चा. १०)
णिज्जिय वि [निर्जित] जीता हुआ, पराभूत। (भा. १५५)
णिज्जुत्ति स्त्री [निर्युक्ति] व्याख्या, विवरण । (निय. १४२)
णिट्ठव सक [नि+स्थापय्] पूर्ण करना, नष्ट करना । (भा. १४८)
णिट्ठिद वि [निष्ठित] भरा हुआ, पूर्ण किया हुआ । (प्रव. ज्ञे. ५३)
लोगो अद्वेहिं णिट्ठिदो णिच्चो ।
 
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